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प्रस्ताव ५ : विमल का उत्थान : देवदर्शन
(विचार) में पड़ गये कि कुमार को क्या हो गया ? तुरन्त उसके शरीर पर शीतल पवन की गई जिससे उसकी मूर्छा दूर हुई और चेतना आई। उसे जागृत होते देखकर रत्नचूड ने सादर पूछा-मित्र विमल ! ऐसे अद्भुत देवालय में तुम्हें क्या हो गया ? ऐसे स्थान पर मूर्छा आने का क्या कारण हुआ? [२०७-२१०]
रत्नचूड के प्रश्न को सुनकर विमल में फिर से भक्तिभाव जागृत हो गया, शरीर रोमांचित हो गया, हर्ष से नेत्र प्रफुल्लित हो गये और दोनों हाथ जुड़ गये । उसी स्थिति में खड़ा होकर वह रत्नचूड के दोनों पांव पकड़ कर हर्षाश्र पूर्ण डबडबाये नेत्रों से पुनः पुनः उसे प्रणाम करने लगा और बोला हे मित्र! तू ही मेरा शरीर, मेरा प्राण, मेरा भाई, मेरा नाथ, मेरे माता-पिता, मेरा गुरु, मेरा देव और मेरा परमात्मा है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। हे धीर वीर उपकारी ! आपने मुझे समस्त पापपुञ्ज का प्रक्षालन करने में समर्थ और संसार की परिसमाप्ति करने वाली जिन-प्रतिमा का दर्शन करवाया।
[२११-२१४] हे रत्नच्ड ! जिन-बिम्ब का दर्शन करवाकर आपने सर्वोत्कृष्ट सौजन्य का प्रदर्शन किया है, आपने मेरे लिये मोक्ष का द्वार खोल दिया है, मेरी संसार बेल को छिन्न-भिन्न कर दिया है, दुःख के जालों को मूल से उखाड़ कर सुख वृक्ष प्रदान किया है और मुझे परम सुखस्थान मोक्ष के निकट पहुँचा दिया है। हे परमोपकारी ! किन शब्दों में तेरे उपकार का वर्णन करू ?
रत्नचूड-भाई ! तुम्हें क्या हो गया ? तू यह सब क्या कह रहा है ? मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है ?
पूर्वकालीन सुकृत्यों का स्मरण
विमल-आर्य ! भगवान की प्रतिमा के दर्शन करने से मुझे जाति-स्मरण ज्ञान हो पाया जिससे मुझे मेरे कई पूर्व-जन्मों की स्मृति स्पष्ट हो गई। पहले भी मैंने कई जन्मों में प्रेम और भक्तिपूर्वक भगवान् के बिम्ब के दर्शन किये हैं ऐसा मुझे याद पाया । पूर्व-जन्मों में सम्यक् ज्ञान रूपी निर्मल जल से मैंने चित्तरत्न को बहुत बार स्वच्छ किया था । सम्यक् दर्शन द्वारा धर्म के सद् अनुष्ठानों को प्रात्मीभूत बनाया/ अपनाया था। प्रात्मा को भावना द्वारा भावित कर भावनामय बना दिया था, साधुओं की उपासना सेवा से अन्त :करण को सुवासित बना दिया था, समस्त प्राणीवर्ग के प्रति मैत्री-भाव रखना तो मेरा स्वभाव ही हो गया था, गुणीजनों के गुणाधिक्य को देखकर मैं हृदय में आनन्द का अनुभव करता हुआ अंगांगीभाव/एकतार धारण कर चुका था, क्लेशग्रस्त प्रारणी को देखकर चित्त में करुणा रस उमड़ पड़ता था, समझाने पर भी न समझने वाले लोगों के प्रति उपेक्षा भाव अधिक दृढ़ हो गया था, विषयजन्य सुख और दु:ख के प्रति औदासीन्य वृत्ति अधिक निश्चल हो गई थी, शांतरस आत्मा में एकरस हो गया था, संवेग से पूर्णतया परिचित हो गया था, संसार पर वैराग्य/निर्वेद दृढ़ हो गया था, करुणा में अत्यधिक वृद्धि हो गई थी,
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