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उपमिति भव-प्रपंच कथा
'मनीषियों को ऐसे कार्य सदा करने चाहिए, जिससे मन मुक्ताहार, बर्फ, गोदुग्ध, कुन्दपुष्प और चन्द्रमा के समान श्वेत एवं स्वच्छ हो जाये' ( पृ० ११ १८ प्रस्तावना) जैसी लगभग २८० सूक्तियों का, पूरे ग्रन्थ में, इन्होंने प्रयोग किया है । उपमा और रूपकों की तो इतनी भरमार है कि शायद ही कोई पृष्ठ, इनसे अछूता बच पाया हो ।
'भव - प्रपञ्च' का विस्तार और उसकी प्ररूपणा, प्रस्तुत ग्रन्थ का मुख्यप्रतिपाद्य विषय है । वह भी, उपमानों के माध्यम से । इसलिए, सिद्धर्षि ने, संसारी स्थितियों, पात्रों और घटनाओं का जो बाह्य परिवेश, अपनी लेखनी का विषय बनाया, उसकी चरितार्थता तब तक बिल्कुल ही बेमानी रह जाती, जब तक कि उसके विकास / विस्तार के मुख्य-निमित्त, अन्तरङ्ग-परिवेश को, क़लम की नौंक पर न बैठा लिया जाता । यह अन्तरङ्ग परिवेश, यद्यपि स्वभावत: अमूर्त है, तथापि, मूर्त-संसार का कोई भी ऐसा कौना नहीं है, कोई भी घटना, पात्र और स्थिति नहीं है, जिसकी कल्पना तक, अंतरंग-परिवेश के सहयोग / उपस्थिति के बगैर की जा सके ? इस अनिवार्यता के कारण, इस पूरे कथा ग्रंथ में, जितने भी राजा / महाराजा, राजकुमार, राजकुमारियां, रानियां, महारानियां, उनकी सेना, सेवक / अनुचर, पारिवारिकजन और सामाजिक आदि-आदि सिद्धर्षि ने कल्पित किये, उससे कुछ अधिक ही, अंतरंग-लोक में, ऐसे ही पात्रों की कल्पना करना उन्हें लाजिमी हो गया । इतना ही नहीं, जो नगर, ग्राम, उद्यानं, नदी, पर्वत, महल, गुफाएं उन्होंने धरती के लोक में वर्णित की, वैसे ही, अंतरंग लोक में वर्णन करने का कौशल - सामर्थ्य, उन्हें अपने आप में जुटाना पड़ा। पर, प्रसन्नता की बात यह है कि इस सारे कल्पना - जाल में, सिद्धर्षि की विशाल - प्रज्ञा एक ऐसा पैनापन ले आने में समर्थ हुई है, जिसका प्रवेश, शास्त्रों में वरिणत स्वर्ग और नरक आदि चौदहों लोकों में बेरोक-टोक हुआ है । यह, इस कथा-ग्रन्थ से स्पष्ट ज्ञात हो जाता है ।
हर कथा में, दो वर्ग होते हैं - एक तो नायक, यानी कथानायक का वर्ग, जो पग-पग पर, उसे साहस / सहयोग प्रदान करता है, ताकि वह अपने लक्ष्य - साधन में सफल हो सके । दूसरा वर्ग वह होता है, जो कथानायक के साथ कुछ इस तरह चिपका - चिपका रहता है कि उसके हर प्रगति कार्य में झट से उपस्थित होकर, कोई न कोई बाधा खड़ी कर देता है । इस दूसरे वर्ग को प्रतिनायक वर्ग कहा जा सकता है।
'उपमिति-भव - प्रपंच कथा' में कथानायक तो 'संसारी जीव' ही है, क्योंकि ग्रन्थ के विशाल कथानक का मूल सूत्र, संसारी जीव से, कहीं भी टूटने नहीं पाता । किन्तु, मजेदार बात यह है कि इस कथानायक की लड़ाई जहाँ-कहीं भी जिस किसी से होती है, या, मित्रता और उठना-बैठना जिनके बीच होता है, वे सबके सब दिखावटी हैं । यह निष्कर्ष, तब निकल पाता है, जब इस सारे कथानक पर, दार्शनिक बुद्धि से गौर किया जाये । क्योंकि पूरे ग्रन्थ में, जो परस्पर संघर्षरत दो पक्ष / प्रति
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