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प्रस्तावना
( पृ० ४८६), जिनशासन ( पृ० ४५), चण्डिकायतन ( पृ० ३६७), अतिशय वर्णन ( पृ० ५९६), और आराधना वर्णन ( पृ० ७६६ ) जैसे प्रसङ्ग पठनीय हो सकते हैं । साधु समाज के लिये साधु का स्वरूप ( पृ० ४३६ ), साधु अवस्था ( पृ० ५७६), साधुक्रिया ( पृ० ६४१ ), साधु धर्म ( पृ० ६३६ ), प्रव्रज्या विधि ( पृ० ७३७), दीक्षा महोत्सव ( पृ० २१७, २२८), आदि प्रसङ्ग तो पठनीय हैं हीं, इनके साथ-साथ, अपने आचरण की प्रखरता बनाये रखने के लिए वैराग्य महिमा ( पृ० ५६७), सम्यक्त्व ( पृ० ७३ ), सम्यग्दर्शन ( पृ० ४५१), चित्तानुशासन ( पृ० ६४ ), दया ( पृ० २७१), ध्यान योग ( पृ० ७५७), सद्धर्म साधन (पृष्ठ ६३९), चारित्र (पृ० ४४८ ), चारित्र सेना ( पृ० ४५४), साधु के गुण ( पृ०६१), धर्म के परिणाम ( पृ० ७१ ), क्षमा ( पृ० १४९ ), सदागम का स्वरूप ( पृ० ११८ ), सदागम का माहात्म्य ( पृ० ११७), पुण्योदय ( पृ० १३६), सम्यग्दर्शन के पांच दोष ( पृ०७३), विभिन्न साधुवर्गों पर प्रक्षेप के प्रसङ्ग में क्रियाओं के अर्थ ( पृ० ६१), तप के प्रकार ( पृ० ७५६), मुक्ति स्वरूप ( पृ० ४३० ), और सिद्ध स्वरूप ( पृ० ७०६)तथा सब एक साथ मोक्ष क्यों नहीं जाते ( पृ० ४६) आदि प्रसङ्गों जैसे अनेक प्रसङ्ग पठनीय हैं, चिन्तनीय हैं और मननीय होने के साथ प्राचरणीय भी हैं ।
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सिद्धर्षि की भाषा सरल, सुबोध और हृदयग्राही तो है ही, उसमें भावों को स्पष्ट कर पाठक के मन पर अपना प्रभाव डालने की भी पर्याप्त सामर्थ्य है । इसके लिये, उन्हें, प्रसाद गुण को अङ्गीकार करना पड़ा । स्थिति और पात्र, जिस तरह की भाषा की अपेक्षा करते हैं, उसी तरह, भाषा का प्रयोग किया गया है । वे, जब 'कुटी प्रावेशिक रसायन' ( पृ० ३५), विमलालोक अंजन ( पृ० १२ ), तत्त्वप्रीतिकर जल ( पृ० १२), महाकल्याणक भोजन ( पृ० १२), ग्रामर्ष औषधि ( पृ० ४५), गोशीर्ष चन्दन ( पृ० ४५), भैंस का दही और बैंगन ( पृ० ८५-८६ ), नागदमनी औषधि ( पृ० १४२ ) और धातु मृत्तिका ( पृ० ३८ ) तथा लोहे को सोना बनाने का रस - 'रसकूपिका' ( पृ० ३८ ) जैसे प्रसङ्गों पर चर्चा करते हैं, तब उनके वैद्यक का ज्ञान और एक धातुविद् का बुद्धिकौशल, सामने आ जाता है । मद्यपान की दुर्दशा ( पृ० ३६७ ) व मांस खाने के दुष्परिणाम ( पृ० ४१३ ) से लेकर काम-क्रीड़ा ( पृ० ५०४) जैसे प्रसङ्गों की, प्रसङ्गगत अपेक्षात्रों को रखते हुए, वसन्त ( पृ० ३८६ ), ग्रीष्म और वर्षा ( पृ० ४५६) तथा शरद् - हेमन्त ( पृ० ३३४ ) और शिशिर ( पृ० ३८६ ) ऋतुओं का वर्णन भी दिल खोलकर किया गया है ।
कथावर्णन में सिद्धर्षि ने नीतिवाक्यों / सूक्तियों का भी भरपूर प्रयोग किया है । 'लक्षणहीन मनुष्यों को चिन्तामणि रत्न नहीं मिलता' ( पृ० १२१), 'सद्गुरु के सम्पर्क से कुविकल्प भाग जाते हैं' ( पृ० ५७), 'पहिले जो दिया जाता है, वही मिलता है' ( पृ० १००), 'धर्म के प्रतिरिक्त, सुख पाने का कोई दूसरा साधन नहीं है' ( पृ० ५७), 'पति-पत्नी परस्पर अनुकूल हो, तभी प्रेम बना रहता है ( पृ० १०६ ), 'जुत्रों से बचने के लिए कपड़ों का त्याग कौन बुद्धिमान करेगा' ( पृ० ११४ )
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