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________________ उपमिति भव-प्रपंच कथा 'उपमिति - भव-प्रपंच कथा' मात्र दार्शनिक / प्राध्यात्मिक विषयों को ही स्वयं आत्मसात नहीं किये है, बल्कि इसमें शृङ्गार, वीर, रौद्र, हास्य, करुणा आदि रसों का, छहों ऋतुओं का, नगर, पर्वत, वन, नदी आदि प्राकृतिक दृश्यों का सजीव चित्रण भी है । ૬૪ मनुष्य के जन्म, जन्मोत्सव और शिक्षा-दीक्षा ग्रहण से लेकर उसके विवाह आदि संस्कारों का, उसके पिता भाई आदि दायित्वों के निर्वाह का और सम्मिलित परिवार के रूप में एक गृहस्थी का, प्राचरणीय क्या होना चाहिए ? परिवार, समाज और अपने देश के प्रति उसके क्या-क्या कर्त्तव्य हैं ? समाज में किस तरह की व्यावहारिक व्यवस्थाएं होनी चाहिएं ? इन सारे पक्षों पर सिद्धर्षि ने अपनी सूक्ष्मेक्षिका से प्रकाश डाला है । और उनके समकालीन समाज में किस तरह का वातावरण था, कौन-कौन सी कुरीतियां, रूढ़ियां थीं, जो सामाजिक नैतिक उत्थान में बाधा बनी हुई थीं. इस पक्ष को भी उन्होंने बिना कोई छिपाव किये, अपनी रचना में दर्शाया है । जैन धर्म / दर्शन में आस्था रखने वाले सामाजिकों / नागरिकों को श्रावक/श्राविका के लक्षण, दायित्व और कर्त्तव्यों को भी स्पष्ट करने में. उनसे चूक नहीं होने पाई । हिंसा, चोरी, लूटपाट, ठगी, परवञ्चना और दुराचार जैसे घिनौने रूपों का खुलासा करने के साथ-साथ सच्चाई, ईमानदारी, परोपकारिता और दीनदुःखियों के प्रति हमदर्दी जैसे सात्विक गुणों की वर्णना में भी वे पीछे नहीं रहे । कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि सिद्धर्षि ने अपने समकालीन समाज की दुखती नस को छुआ है, तो उसका उपचार / इलाज भी बतलाया है कि कैसे उसे दूर करके समाज को स्वस्थ्य बनाया जा सकता है । इन सारे वर्णनों के कुछ नमूने पुरुष प्रकार (पृष्ठ २०१), नारी स्वरूप ( पृष्ठ ३८२ ) और लक्षण ( पृष्ठ ४७४ ), राजा-रानी वर्णन (पृष्ठ १४८), मंत्रीवर्णन ( पृ० १५८), राज्य की सुख दुखता - ( पृ० ५८१ ), दुर्जन दोष ( पृ० ११२), धनगर्व ( पृ० ४०४), पाखण्डी भेद ( पृ० ३६५), मद में अंधापन (पृष्ठ ३३) आदि देखे जा सकते हैं । संसारी की मूल स्थिति (पृष्ठ २८६), शोक का स्वरूप ( पृ० ४०२, ६६६), संसारी जीव का स्वरूप ( पृ० ५७६ ), मोह की प्रबलता ( पृ० ७२६), महामोह ( पृ० १६१ ), मिथ्या अभिमान ( ४०० ), भोगतृष्णा ( १७४), राग की त्रिवि - धिता और वेदनीय के तीन प्रकार ( पृ० ३६७ ), अज्ञान से उत्पन्न होने वाले दोष (पृष्ठ १७६), क्रोध, मान आदि कषायों का स्वरूप ( पृ० ३७३ ), मिथ्या दर्शन ( पृ० ३५६ ), मिथ्याभिमान से बनने वाली हास्यास्पद स्थिति ( पृ० १०१ ), और चारों गतियों का (पृष्ठ ४१८) वर्णन, जीवात्मा के संसार वृद्धि के कारणों के रूप में देखा / पढ़ा जा सकता है । जो व्यक्ति, परमात्म स्वरूप की साकारता में आस्था रखते हैं, उनके लिए जिनपूजा ( पृ० ४८६ ), जिनाभिषेक ( पृ० २१८ ), साकार स्वरूपदर्शन की महिमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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