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प्रस्तावना
उसके भव-विस्तार में प्रमुख निमित्त बनता है । क्योंकि, इसका स्वाभाविक धर्म हैप्राणी को स्वस्थान से अधःपतित बनाना और दुगुणों के प्रति प्रेरित करना।
तीसरा कुटुम्ब/परिवार प्राणी का अपना शरीर, उसे पैदा करने वाले माता-पिता, और भाई-बहिन आदि अन्य कुटुम्बीजनों का होता है । यह कुटुम्ब, स्वरूप से ही अस्वाभाविक है । और, सादि सान्त है। इसका प्रारम्भ अल्पकालिक होता है, फलतः, इसका अस्तित्व पूर्णतः अस्थिर रहता है । यह कुटुम्ब, भव्य प्राणी को तो कभी हितकारी और कभी अहितकारी भी होता है । इसका धर्म उत्पत्ति और विनाश है। यह, हमेशा बहिरंग प्रदेश में ही प्रवर्तित होता है । भव्य प्राणी को, यह संसार और मोक्ष, दोनों की प्राप्ति में सहयोगी बनता है। जबकि अभव्य प्राणी के लिये, यह सिर्फ संसार-वृद्धि का ही कारण होता है। प्रायः, यह कुटुम्ब, प्राणी के दूसरे कुटुम्ब के सदस्यों- क्रोध, मान, माया आदि को परिपुष्ट करने वाला होने से संसारवृद्धि का ही कारण बनता है । जब, कोई प्राणी, अपने प्रथम प्रकार के कुटुम्ब का अनुसरण/ अनुगमन करता है, तब, यह भी, उसके पोषण में सहयोगी बन जाता है, और इस तरह, मोक्ष दिलाने में कारण बनता है ।
इसी तरह के तमाम विवेचनों से भरा-पूरा है यह महाकथा ग्रन्थ । धर्म और दर्शन, खासकर जैनधर्म/दर्शन के हर प्रसङ्ग को सिद्धर्षि ने छुआ भर नहीं है, बल्कि उसकी ऐसी स्पष्ट अवतारणा अपने पात्रों में कर दी है, जिससे यह प्रतीत होने लगता है कि, पाठक, कोई कथा नहीं पढ़ रहा है, बल्कि, कथा के पात्रों की घटनाओं को अपने बहिरंग और अंतरंग परिवेश से प्रत्यक्ष-घटित होता अनुभव करता है।
तीसरे प्रस्ताव से लेकर सातवें प्रस्ताव तक कुल पाँच प्रस्तावों में, हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्य और परिग्रह तथा क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह एवं स्पर्शन, रसन, चक्ष, घ्राण और श्रोत्र में से एक-एक को लेकर, एक-एक प्रस्ताव में इनके समग्र स्वरूप की स्पष्ट, सहज और सरल रूप में व्याख्या की है । और, इन सबके संसर्ग/संपर्क से होने वाले दुष्परिणामों को, कई-कई कथानकों के द्वारा व्याख्यायित किया है । इन पाँच-सात प्रस्तावों में, धर्म और दर्शन के व्यावहारिक आचरण का एक-एक रोम तक व्याख्यायित होने से नहीं बच पाया । इसके अलावा भी, प्रसंगवश जिन विषयों शास्त्रों को विवेचना की गई है, उनमें आयुर्वेद, ज्योतिष, स्वप्न-शास्त्र निमित्त-शास्त्र, सामुद्रिक-शास्त्र, धातुविद्या, युद्धनीति, राजनीति, गृहस्थ धर्म, मनोविज्ञान दुर्व्यसन, विनोद, व्यंग्य आदि प्रमुख हैं। इन सबको, सिद्धर्षि ने जीवन-घटनाओं के सांसारिक/नैतिक/प्राध्यात्मिक विवेचन में, जीभर कर उपयोग में लिया है। जिससे, यह स्पष्टत: प्रमाणित होता है कि वे, मात्र दर्शन/धर्म के ही मर्मज्ञ नहीं थे, बल्कि, उनकी उदात्त ज्ञानसमृद्धि-चतुर्मुखी/ बहुमुखी थी।
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