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________________ ६२ उपमिति भव-प्रपंच कथा चेष्टा करते हैं, और न ही, कर्मबन्ध के अनुकूल परिणाम देने वाले कार्यों में विशेष रुचि रखते हैं । जबकि प्रधम पुरुष, हर क्षरण, इस तरह के क्रिया-कलापों में संलग्न रहता है, जिनके द्वारा उसके भव-प्रपञ्च का विकास / विस्तार ही होगा । एक तरह से, ऐसे ही व्यक्तियों को लक्ष्य करके, यह कथा - ग्रन्थ सिद्धर्षि ने लिखा है, ताकि वे इसे उपयोग कर सकें । वस्तुत:, कोई भी व्यक्ति, जन्म से उत्कृष्ट, मध्यम या ग्रधम नहीं होता । उसके, अपने पिछले जन्मों के कर्मबन्ध, संस्कार बन कर उसके साथ पैदा अवश्य होते हैं, तथापि, जन्म ग्रहण कर लेने के बाद, बहुत कुछ इस बात पर, व्यक्ति के आगे का भव-प्रपञ्च निर्भर करता है कि उसने वर्तमान मनुष्य भव में क्या, कुछ, कैसा किया । और, यह एक अनुभूत सत्य है कि व्यक्ति, जैसे परिवेष में रहेगा, जिस तरह के समाज में उठेगा बैठेगा, उस सबका प्रभाव उस पर निश्चित ही पड़ेगा । इस तथ्य से, ग्रन्थकार भली-भांति परिचित रहे । फलतः इस स्थिति की उन्होंने प्राध्यात्मिक / धार्मिक / मनोवैज्ञानिक / वैज्ञानिक तरीके से जो व्याख्या की है, वह, बहुत कुछ इन शब्दों से समझी जा सकती है । इस संसार में प्रत्येक प्राणी के तीन-तीन कुटुम्ब होते हैं । प्रथम प्रकार के कुटुम्ब में -- क्षान्ति, ग्रार्जव, मार्दव, लोभ-त्याग, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख, सत्य, शौच, और सन्तोष आदि कुटुम्बीजन होते हैं । यह कुटुम्ब, प्राणी का स्वाभाविक कुटुम्ब है, जो अनादिकाल से, उसके साथ रहता आता है । इस कुटुम्ब का कभी अन्त / विनाश नहीं होता । यह कुटुम्ब, प्राणी का हित करने में ही सदा तत्पर रहता है । परेशानी की बात सिर्फ यह है कि, यह कुटुम्ब कभी-कभी तो अदृश्य हो जाता है और फिर प्रकट हो जाता है । उसका छुपना और प्रकट होना, स्वाभाविक धर्म है । यह हर प्राणी के अन्त में रहता है । इसकी सामर्थ्य इतनी प्रबल है कि यदि यह कुटुम्ब चाहे तो प्राणी को मोक्ष की प्राप्ति भी करा सकता है । क्योंकि, यह अपने स्वभाव से ही, प्राणी को, उसके स्व-स्थान से उच्चता की ओर ले जाता है । दूसरा कुटुम्ब, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, अज्ञान, शोक, भय, अविरति आदि का है । यह कुटुम्ब, प्राणी का अस्वाभाविक कुटुम्ब है । किन्तु, यह दुर्भाग्य की बात ही कही / मानी जायेगी कि अधिकांश प्रारणी, इसे ही अपना स्वाभाविक कुटुम्ब मान कर, उससे प्रगाढ़ प्रेम करने लगते हैं । इसका सम्बन्ध, भव्य जीवों के साथ अनादि काल से है, जिसका अन्त कभी नहीं होता । कुछ भव्य प्राणियों के साथ भी, इसका अनादि काल से सम्बन्ध जुड़ा होता है, किन्तु उसका अन्त, निकट भविष्य में होने की सम्भावनाएं बनी रहतीं हैं । यह कुटुम्ब, प्राणी का, एकान्ततः ग्रहित हो करता है । किन्तु, यह भी जब कभी, प्रथम कुटुम्ब की तरह अदृश्य हो जाता है, छुप जाता है, और फिर से प्रकट हो जाता है । यह भी, प्राणी के अंतरंग में निवास करता है, और उसे सांसारिक विषय-भोगों में, प्रवृत्त कराकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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