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प्रस्तावना
द्वन्द्वी बतलाए गये हैं, वे हैं-सत्-प्रवृत्ति और असत्प्रवृत्ति । यानी, सदाचार और दुराचार । दुराचार पक्ष की ओर से, कई बार यह कहा गया है कि हमारा असली शत्रु 'संतोष' है, 'सदागम' है । जो, 'संसारी जीव' को उनके चंगुल से मुक्त करके 'निवृत्ति नगरी' में पहुंचा देता है। 'कर्मपरिणाम' के प्रमुख सेनापति 'महामोह'
और उसके पक्ष/परिवार के 'अशुभोदय' आदि, अपनी सेना के साथ, 'संतोष' को पराजित कर समूल नष्ट करने के लिये प्रयासरत दिखलाये गये हैं । एक भी प्रसङ्ग, ऐसा पढ़ने को नहीं मिला, जिसमें, यह स्पष्ट हुआ हो कि 'महामोह' की सेना ने, 'संसारी जीव' को पराजित करने के लिए कच किया हो । 'संसारी जीव' को तो कुछ इस तरह दिखलाया गया है, जैसे, वह 'संतोष' आदि का निवास स्थान महल/ किला हो । यह गुत्थी, पाठक की बुद्धि को चकराये रहती है ।
इस कथा-ग्रन्थ में, धर्म के आचरणीय अनुकरण को मुख्यतः प्रतिपादित किया गया है। इसलिये, इसे हम, 'धर्मकथा' कहने में संकोच नहीं कर सकते । किन्तु, यही धर्म तो जीवात्मा की असली पूजी है, सम्पत्ति है । इसके बिना, हर जीवात्मा, सिद्धर्षि की तरह निष्पुण्यक/दरिद्री बन जायेगा। अतः इसे 'अर्थकथा' भी मानना चाहिये । परन्तु, यह 'अर्थ' यानी 'धर्म' प्राप्त कर लेना ही, जीवात्मा के लिए सब कुछ नहीं है । बल्कि, 'धर्म' तो उसके लिए एक 'माध्यम' बनता है, सीढ़ी की तरह । जिसका सहारा लेकर, 'मोक्ष' के द्वार तक, जीवात्मा चढ़ पाता है । और, यह 'मोक्ष' ही उसका 'काम'/'इच्छा'/'प्राप्तव्य' होता है। मोक्ष प्राप्ति की कामना किये वगैर, किसी भी जीवात्मा का प्रयत्न, मोक्ष-प्राप्ति के लिये नहीं होता । इस दृष्टि से, इसे 'कामकथा' मानना चाहिये । इस लक्ष्य-प्राप्ति के लिए, अन्य अनेकों अवान्तर कथाएं, सहयोगी बनी हुई हैं। जिनके द्वारा जीवात्मा की प्रवृत्ति, सांसारिक पदार्थ भोग से हटकर, 'मोक्ष' की ओर उन्मुख हो पाती है । यदि, इन अवान्तर कथाओं का प्रसङ्गगत उपदेश/निर्देश/सुझाव जीवात्मा को न मिले, तो वह, संसारी ही बना पड़ा रह जायेगा। इसलिए, इन अवान्तर सङ्कीर्ण कथाओं का अप्रत्यक्ष सम्बन्ध ही सही, किन्तु, मूल्यवान प्रदाय, मोक्ष-प्राप्ति में निमित्त बनता है। इस दृष्टि से, इस कथाग्रन्थ को 'सङ्कीर्ण कथा' भी कहा जाना, अनुचित न होगा।
इस तरह, हम देखते हैं, कि, 'उपमिति-भव-प्रपंच कथा' हमें सिर्फ जगत् के जञ्जाल से छुड़ाने की ही दिशा नहीं देती, बल्कि, वह यह भी प्रकट करती है कि सब कुछ भूल/छोड़ कर, यदि मेरा ही चिन्तन/मनन कोई करे, तो उसको मोक्ष-लाभ होने में कोई मुश्किल नहीं पा पायेगी ।
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