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________________ प्रस्ताव ५ : विमल, रत्नचूड और आम्रमञ्जरी मन को शांति नहीं मिलेगी। ऐसा सोचकर रत्नचूड ने अपने हाथ में एक रत्न प्रकट किया, जो देखने में इतना असाधारण था कि उसमें भूरा, लाल, पीला, सफेद और काला कौनसा रंग है, कुछ भी स्पष्टतया कहा नहीं जा सकता था। इसके प्रकट होते ही चारों दिशाएँ जगमगा उठीं। यह रत्न सभी रंगों से सुशोभित इन्द्रधनुष जैसा था और अपनी किरणों की प्रभा सर्वत्र फैला रहा था। यह रत्न विमल को दिखाते हुए रत्नचूड ने कहा- भाई विमल ! यह रत्न समस्त प्रकार के रोगों को दूर करने वाला, महाभाग्यवान, संसार से दारिद्र्य को नष्ट करने वाला, मोर पंख के समान सब रंगों वाला और गुणों में चिन्तामणि रत्न जैसा है। देवताओं ने मेरे कार्य से प्रसन्न होकर प्रसन्नता से यह रत्न मुझे अर्पित किया था। इस रत्न में यह विशेषता है कि इस लोक में यह मनुष्यों की सकल इच्छाओं की पूर्ति करता है। [१८८-१९२] प्रिय बन्धु कुमार ! कृपा कर आप इस रत्न को ग्रहण करें। जब तक आप इस रत्न को नहीं लेंगे तब तक मेरे चित्त को शांति नहीं मिलेगी। रत्नचूड के अत्याग्रह के उत्तर में विमल बोला -महात्मा बन्धु ! आप इस विषय में थोड़ा भी आग्रह नहीं करें और न अपने मन में संताप ही करें। आपने दिया और मैंने ले लिया, फिर क्या बाकी रहा ? देखो भाई ! यह देव प्रदत्त अमूल्य रत्न तो आपके पास रहे तो ही अच्छा है, अतः आप इसे संभाल कर रखें और मन में किसी भी प्रकार का संकल्प-विकल्प न करें। तब आम्रमञ्जरी बोली-बन्धु विमलकुमार ! आर्यपुत्र की इस अभ्यर्थना (इच्छा) को आप भंग न करें। देखिये कहा भी है : चित्त में स्पृहारहित होने पर भी सत्पुरुष प्रेम से प्रेरित होकर दान देने को उद्यत दानी की प्रार्थना को कदापि भंग नहीं करते, क्योंकि उनमें इतनी दाक्षिण्यता (दयालुता) होती है कि वे किसी को मना कर उसका दिल नहीं तोड़ सकते । [१६३] महर्घ्य रत्न-प्राप्ति पर भी नि:स्पृहता अाम्रमजरी की बात सुनकर विमल उत्तर दे ही रहा था कि रत्नचूड ने आदरपूर्वक देवता द्वारा प्राप्त वह रत्न दिव्य वस्त्र में लपेटकर (मल्यवान डिबिया में रखकर) विमल के वस्त्र के पल्ले में बांध दिया ।* ऐसे अद्भुत और महर्घ्य रत्न के प्राप्त होने पर भी इच्छारहित मध्यस्थ भावधारक विमल के चेहरे पर हर्ष का कोई भाव प्रकट नहीं हुआ। विमल के ऐसे गुण को देख कर रत्नचूड के हृदय में विमल के प्रति अत्यधिक आदर भाव जागृत हुआ । उसके नेत्र विस्मय से विकसित हो गये और वह मन में सोचने लगा कि, अहा ! इस भाई का माहात्म्य तो कुछ अपूर्व ही लगता है । ऐसी निःस्पृहवृत्ति तो कहीं देखने में नहीं आई। इस कुमार का चरित्र * पृष्ठ ४८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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