SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 807
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५. विमल, रत्नचूड और आम्रमजरी रत्नचूड का प्राभार-प्रदर्शन आत्मकथा पूरी कर रत्नचूड ने आगे बात चलायी। धीर पूरुष, भाई विमल ! आपने मेरी प्रियतमा की रक्षा कर वास्तव में मेरे ही जीवन की रक्षा की है। उसकी रक्षा से आपने मेरे कुल की उन्नति की है और मुझे विशुद्ध यश प्राप्त करवाया है । [१८४] महानुभाव ! मैं आपकी प्रशंसा में* अधिक क्या कहँ ? इस संसार में ऐसी कोई वस्तु या विषय नहीं जिसे आपने मेरे लिये न किया हो, अर्थात आपने मेरा सब कुछ कर दिया है । [१८५] लोक में कहावत है कि उपकार का बदला चुकाना तो वणिकों (व्यापारियों) का धर्म है, इसमें क्या विशेषता है ? पर जो प्राणी उपकार का बदला चुकाने से मुंह चुराता हो, उसे तो पशु ही समझना चाहिये। किये गये उपकार का बदला न चुकाने वाला मनुष्य हो ही नहीं सकता। अतः हे विमल कुमार ! आप मुझ पर कृपा कर मुझे आज्ञा प्रदान करें कि आपको क्या प्रिय है ? मैं आपका सेवक आपके लिये वह कार्य करने को तत्पर हूँ । [१८६-१८७] विमल-हे कृतज्ञश्रेष्ठ ! आपको ऐसे संभ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं है। आज मुझे आपके दर्शन से क्या प्राप्त नहीं हुअा ? अर्थात् सब कुछ प्राप्त हो गया। इससे अधिक प्रिय मुझे और क्या हो सकता है ? कहा है : सज्जन व्यक्ति का एक मीठा बोल हजारों मोहरों से अधिक मूल्यवान है, ऐसे भाग्यवान का दर्शन मिलना तो लाखों मोहरों से भी अधिक कीमती है और करोड़ों मोहरें खर्च करने पर भी ऐसे सज्जन भाग्यवान पुरुष के हृदय के साथ भावपूर्वक मिलन तो अति दुर्लभ है। [१८८] हे भद्र ! मैंने आपका ऐसा क्या काम कर दिया है कि जिससे उसका बदला चुकाने के विषय में आप इतने व्यग्र हैं ? विमल का उत्तर सुनकर रत्नचूड ने अपने मन में विचार किया कि ऐसा सज्जन पुरुष किसी भी वस्तु की मांग तो क्या करेगा ? पर, मुझे तो मेरे इस अकारण मित्र का कुछ न कुछ प्रत्युपकार तो अवश्य ही करना चाहिये। अन्यथा मेरे * पृष्ठ, ४८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy