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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा हैरान करे तो उसे फिर से ग्रहण करने में अथवा उसका त्याग करने से लोगों में मेरी अपकीति होगी। जब मैं अचल के साथ युद्ध करू तब मेरी पत्नी की रक्षा कर सके ऐसा कोई बलवान व्यक्ति भी मुझे इस समय दिखाई नहीं देता । अतः अच्छा तो यही होगा कि इस समय मैं अपनी पत्नी को लेकर इस स्थान से कहीं दूर चला जाऊं। अचल के साथ युद्ध और उसकी पराजय यही सोचकर मैं आम्रमजरी को लेकर गगनशेखर नगर से चल पड़ा। यह क्रीडानन्दन उद्यान मैंने पहले भी कई बार देखा था अतः उसे लेकर मैं यहीं इस लतामण्डप में आ गया। उसके कुछ देर पश्चात् ही हमें ढूढते हुए अचल और चपल भी यहाँ आ गये । आकाश में रहकर अचल ने मुझे तिरस्कार पूर्ण कटु वचन सुनाये और युद्ध के लिये निमन्त्रित किया । उन कठोर वचनों को सुनकर मेरे मन की स्थिति कैसी दुविधाजनक हो गई थी, बतलाता हूँ। एक ओर मेरी प्रिय प्रेममूर्ति प्रिया के स्नेह-तन्तु मुझे बांध रहे थे और दूसरी ओर शत्रु का युद्ध-रस का निमन्त्रण मुझे युद्ध के लिये ललकार रहा था। मेरे हृदय की ऐसी स्थिति हो गई थी कि न उठा जाता था और न रहा जाता था। मैं मानसिक द्वन्द्व के कारण निर्णय करने में मूढ सा बन गया था, मानों किसी झूले पर झूल रहा होऊँ । अर्थात् उस समय न तो मैं मेरी पत्नी को अकेली छोड़कर जाना चाहता था और न अचल-चपल के युद्ध निमन्त्रण को भुलाकर कायर ही कहलाना चाहता था। [१७६ ---१८०] अन्त में मैं एकदम प्रबल क्रोधावेश* में आकर अचल की ओर दौड़ा तथा उसके साथ युद्ध करने लगा । हमारी लड़ाई कैसी स्थिति में हुई और मैंने कैसे अचल को पराजित किया यह तो आपने स्वयं देखा ही है। जैसे ही अचल हार कर भागने लगा मैंने भी तुरन्त उसका पीछा किया। जब मैं उसके निकट पहुँचा तब मैंने भी उसे कटु वचनों द्वारा अत्यधिक ललकारा, तब वह रुका और एक बार फिर हमारा युद्ध हुआ । मैंने प्रबल सपाटे से उस पर प्रहार किया जिससे उसकी हड्डियां टूट गईं और वह आकाश से जमीन पर गिरा । उसके अंगोपांग चूर-चूर हो गये, उसकी शक्ति नष्ट हो गई, दीनता आ गई, उसकी विद्याओं का प्रभाव नहीं चला और वह हलन-चलन रहित निष्पन्द सा हो गया। पानमञ्जरी का स्मरण मैंने सोचा कि अचल तो अब ऐसा हो गया है कि फिर से लड़ने के लिये मेरे सामने आने की हिम्मत नहीं करेगा, किन्तु अाम्रमञ्जरी को अकेली छोड़ कर मैं इसके पीछे लगा, यह तो आकाश में मुट्ठी मारने या दाल को छोड़कर उसके * पृष्ठ, ४८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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