SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 772
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्ताव ४ : रिपुदारण का गर्व और पतन ६५६ अनुभव किया और अत्यन्त अधम जाति, कुल आदि में उत्पन्न हुआ । सचमुच ही इसको शैलराज और मृषावाद की मित्रता बहुत ही महंगी पड़ी। ___ संसारी जीव ने पुनः कहा-हे अगृहीतसंकेता ! फिर भवितव्यता मुझे भवचक्रपुर के मनुष्यगति नामक नगर में ले गई। वहाँ मुझे मध्यम प्रकार के गुण प्राप्त हुए, जिससे भवितव्यता मुझ पर प्रसन्न हुई * और मुझ पर संतुष्ट होकर मेरे मित्र पुण्योदय को फिर से मेरे साथ रहने के लिये जागृत किया। उसने मुझे कहा'आर्यपुत्र ! अब आप मनुष्यगति नगर के वर्धमानपुर में पधारें और वहाँ सुखपूर्वक रहें । यह अनुचर पुण्योदय वहाँ आपके साथ आयेगा और आपकी सेवा करेगा।' पत्नी भवितव्यता के वश में होने से मैंने उसकी आज्ञा को शिरोधार्य किया। मेरी एकभववेद्या (उस भव में भोगने योग्य) गोली के समाप्त होते ही भवितव्यता ने मुझे वर्धमानपुर में भोगने योग्य अन्य गोली प्रदान की। परम्परापवावाम * पृष्ठ ४६६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy