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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा धारण किया । वहाँ मैं तेतीस सागरोपम तक रहा और अनेक प्रकार के महा भयंकर दुःख भोगता रहा । वहाँ गेंद की तरह मैं इधर-उधर ऊपर-नीचे फेंका जाता और वज्र के कांटे मेरे आगे-पीछे, ऊपर-नीचे भौंके जाते । इस सातवें उप-नगर में अनेक भयंकर पीड़ायें दी जाती हैं । बहुत लम्बे समय तक मैं अत्यन्त भयंकर दुःख-सागर में में डूबा रहा । जब मेरा यह समय पूर्ण हुअा तो भवितव्यता ने मुझे एक और गोली दी जिससे मैं पंचाक्षपशु-संस्थान नगर (तिर्यञ्च) में उत्पन्न हुआ । मेरी पत्नी भवितव्यता ने वहाँ मुझे सियार बनाया। हे भद्रे अगहीतसंकेता! भवितव्यता को ऐसे खेलखेलने का बहत शौक था, अतः वह मझे बहत भटकाती रही । कभी पापिष्ठ निवास नगर के सात उपनगरों में से किसी एक में, तो कभी पंचाक्षपशु संस्थान नगर में, तो कभी विकलाक्ष निवास में, कभी एकाक्ष निवास में और फिर मनुष्यगति नगर में ले जाती । अधिक क्या कहूँ ! केवल एक असंव्यवहार नगर को छोड़कर शेष समस्त नगरों में मुझे अनेक बार धक्के खिलाये और अनेक पीड़ाओं का अनुभव कराया गया। कर्मपरिणाम महाराजा द्वारा दी गई एक भव में भोगने योग्य गोली के समाप्त होते ही वह मुझे दूसरी गोली दे देती । इस प्रकार उसने मुझे अरहट्ट-घटिका यन्त्र की तरह अनेक योनियों में घुमाया और भटकाया। इस प्रकार समस्त स्थानों पर मुझे अनन्त बार घुमाया गया। इस प्रकार मुझे उन समस्त स्थानों में भी भटकना पड़ा जहाँ मेरी जाति और कुल भी अत्यन्त अधम और निन्दनीय होते थे। मेरा बल अत्यन्त निस्तेज और मेरा रूप घृणा उत्पन्न करने वाला होता था । मेरी तपस्या भी निन्दनीय होती थी। जन्म से ही मैं अत्यन्त मूर्ख, भिखारी और दरिद्रता का घर होता था। मांगने से भी मुझे भीख नहीं मिलती थी । इस सन्ताप से मेरा भीख मांगने का धन्धा भी निरन्तर अत्यन्त भयानक और कष्टदायक हो जाता था । सभी प्राणी मुझे अपना शत्रु मानते थे और मेरे से दूर भागना ही श्रेयस्कर समझते थे। भवितव्यता ने भिन्न-भिन्न गोलियाँ देकर, मेरे भिन्न-भिन्न समयों में ऐसे अनेक रूप बनाये कि कई बार मेरी जीभ खींचकर निकाल ली जाती कई बार पिघलाया हुआ तांबा पिलाया जाता, कई बार गूगा और बहरा बनाया जाता और अनेक बार तो मेरी जीभ ही काट ली जाती । प्रज्ञाविशाला का चिन्तन ____संसारी जीव जब इस प्रकार अपनी आत्मकथा सुना रहा था तब प्रज्ञाविशाला सोच रही थी कि देखो, अहो ! झूठ और घमण्ड (मषावाद और शैलराज) के कितने भयंकर परिणाम हैं। इनके वश में पड़कर संसारी जीव ने मिला हुआ दुर्लभ मनुष्य जन्म व्यर्थ गंवा दिया, इसी जन्म में अनेक प्रकार के कष्ट और तिर. स्कार सहे और अनन्त संसार-सागर में डूबा । वहाँ विविध प्रकार के दुःखों का साक्षात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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