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उपसंहार भवगहनमनन्तं पर्यटद्भिः कथञ्चिनरभवमतिरम्यं प्राप्य भो भो मनुष्याः ! निरुपमसुखहेतावादरः संविधेयो,
न पुनरिह भवद्भिर्मानजिह्वानृतेषु ।। ४४३ ।।
इस संसाररूपी अति महान गहन वन में भटकते-भटकते महान कठिनाई से किसी समय यह रमणीय मनुष्य भव प्राप्त होता है, अतः हे मनुष्यों ! ऐसे प्रसंग . पर जिस सुख की उपमा अन्य किसी सुख से नहीं की जा सकती, ऐसे निरुपम (मोक्ष) सुख को प्राप्त करने के लिये आदर पूर्वक सम्यक् प्रकार से प्रयत्न करें। विशेषरूप से ऐसे सुन्दर भव को अभिमान करने, असत्य बोलने एवं जिह्वा का रस भोगने में तो कभी भी नष्ट नहीं करें। [४४३]
इतरथा बहुदःखशतैर्हता, मनुजभूमिषु लब्धविडम्बनाः ।
मदरसानृतगृद्धिपरायणा, ननु भविष्यथ दुर्गतिगामुकाः ।। ४४४ ।।
इसके विपरीत जो मनुष्य भव को प्राप्त कर अभिमानी, रस-लोलुप और असत्य-भाषण में प्रासक्ति-परायण बनेंगे तो वे इसी मनुष्य-भूमि में अनेक प्रकार के दुःख भोगेंगे, विविध प्रकार की विडम्बनायें प्राप्त करेंगे और अन्त में निश्चित रूप से दुर्गति में जायेंगे। [४४४]
एतन्निवेदितमिह प्रकटं मया भो, मध्यस्थभावमवलम्ब्य विशुद्धचिताः । मानानते रसनया सह संविहाय,
तस्माज्जिनेन्द्रमतलम्पटतां कुरुध्वम् ।। ४४५ ।। हे प्राणियों! इस प्रकार मैंने (सिद्धर्षि गणि ने) मध्यस्थ भावों का अवलम्बन लेकर मान, रसना और असत्य के चरित्र का वर्णन किया। अब आप भी मध्यस्थ भाव का अवलम्बन लेकर (धारण कर), विशुद्ध अन्तःकरण वाले बन कर रसना, मान और असत्य का त्याग कर जैनेन्द्र-मत के प्रति उत्कट प्रेम धारण करें।
उपमिति-भव-प्रपंच कथा का मान, मषावाद और रसनेन्द्रिय के विपाक वर्णन का चतुर्थ प्रस्ताव का अनुवाद
समाप्त हुआ।
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