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________________ ६५२ उपमिति भव-प्रपंच कथा भूमण्डल को देखने की इच्छा से अपनी सेना और अन्य सामग्री लेकर घूमता हुआ सिद्धार्थ नगर प्रा पहुँचा । मेरे प्रधान मन्त्रियों को उसके आने के समाचार मिल गये । वे नृपनीति और राजनीति में कुशल थे, अतः मेरे हित को ध्यान में रखते हुए एकत्रित होकर उन्होंने मुझ से कहा- यह पृथ्वीपति तपन नामक चक्रवर्ती संसार में सब से बड़ा है, अतः हे देव ! उसके सन्मुख जाकर उसका स्वागत सन्मान करिये । यह चक्रवर्ती सभी राजाओं का पूजनीय है । आपके पिताजी और अन्य पूर्वज उसकी पूजा करते थे, उसकी आज्ञा मानते थे और उसे योग्य सन्मान देते थे । अभी तो वे मेहमान के तौर पर चलकर आपके घर श्रा रहे हैं, अतः अधिक सन्मान के पात्र हैं । अतएव हे देव ! आप उनका उचित प्रातिथ्य सत्कार करें । [४२६-४३३] I रिपुदारण का श्रद्धत्य उसी समय शैलराज ने मेरी चेतना में अपना विष घोल दिया था जिसका प्रभाव मेरे समस्त अंगों पर तीव्रतर होने लगा, मेरे रोंगटे खड़े हो गये और मैं स्तब्ध हो गया । ऐसी स्थिति में मंत्रियों की बात सुनते ही मैंने कहा- अरे मूर्खो, मेरे समक्ष उस तपन का क्या अस्तित्व है ? मैं उसकी पूजा करू और वह मेरी पूजा न करे यह कैसा न्याय ? उसे करना हो तो वह मेरी पूजा करें । [४३४ - ४३५] मेरे वचन सुनकर मंत्री और सेनापति ने पुनः प्रार्थना की - 'देव ! आप ऐसा न कहें। यदि आप इस चक्रवर्ती का सन्मान नहीं करेंगे तो पीढ़ियों से चली प्रा रही परिपाटी ( रीति-रिवाज ) का भंग होगा, राजनीति के प्रतिकूल होगा, प्रजा का प्रलय (नाश) होगा. राज्य सुख का त्याग करना पड़ेगा, विनय नष्ट होगा और हमारे वचनों का अनादर होगा । अतः आपका ऐसा कहना अनुचित है । हे प्रभो ! हम पर कृपा कर आप तपन चक्रवर्ती का योग्य आदर-सम्मान करिये । हमारी दृष्टि में आपका ऐसा करना ही उचित है ।' ऐसा कहते-कहते सभी मेरे पैरों में गिर गये और मुझ से प्रार्थना करने लगे, जिससे शैलराज द्वारा मेरे हृदय पर किया गया लेप कुछ नरम हुआ । दुर्भाग्य से उसी समय मृषावाद ने मुझ पर प्रभुत्व जमाया और उसके प्रभुत्व मैंने अपने मंत्रियों से कह दिया- 'मंत्रियों ! अभी मुझे वहाँ जाने का उत्साह नहीं है, तुम लोग जाओ और यथायोग्य करो | मैं बाद में आजाऊंगा । और, तपन महाराज से उनकी राज्यसभा में आकर मिल लूंगा ।' मेरे वचन सुनकर 'जैसी आपकी आज्ञा' कहते हुए मेरे मन्त्री, सेनापति, राज्य के अधिकारी आदि तपन चक्रवर्ती के सन्मुख गये । तपन चक्रवर्ती के पास विविध देश की भाषा, वेष, वर्ण, स्वर, भेद, विज्ञान और आन्तरिक गुप्त बातों को जानने वाले अनेक गुप्तचर थे । मेरी और मंत्रियों की बातचीत का भेद तपन चक्रवर्ती के किसी गुप्तचर को लग गया और मेरे मंत्रियों * पृष्ठ ४६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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