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प्रस्ताव ४ : रिपुदारण का गर्व और पतन जाय ? अतः मुझे तो अब इन सर्व बाह्य विषयों की चिन्ता छोड़कर मेरी आत्मा का हित हो वैसा करना चाहिये । [४२०-४२२]
हे अगहीतसंकेता! इसके बाद समयोचित तैयारी कर मेरे पिता नरवाहन ने मेरा राज्याभिषेक किया। उस प्रसंग पर किये जाने योग्य सभी कार्य किये, दान दिया और विचक्षणाचार्य के पास दोक्षा ग्रहण कर राज्य का त्याग किया तथा राज्य का सारा कार्यभार मुझे सौंप दिया। दीक्षा ग्रहण कर मेरे पिता विचक्षणाचार्य के साथ विवेक पर्वत पर गये। फिर भी स्वयं अत्यन्त बुद्धिशाली होने से गुरु महाराज के साथ बाह्य प्रदेश में भी विहार (विचरण) करते रहे । [४२३-४२४]
४०. रिपुदाण का गर्व और पतन
[ नरवाहन मनि विवेक पर्वत पर पधारे और बाह्य एवं आन्तरिक प्रदेशों में भी विहार करते रहे। इधर रिदारण ने राज्य-शासन संभाला। पुण्योदय ने उसको स्थिति में परिमित परिवर्तन किया । अगृहीतसंकेता को सुनाते हुए संसारी जीव अपनी आत्म-कथा को आगे चलाते हुए कहने लगा।] पापी-मित्रों का प्रभाव
उस समय मझे राज्य प्राप्त होते ही मेरे विशेष मित्र शैलराज और मृषावाद अत्यधिक प्रसन्न हुए। वे समझने लगे कि अब उन्हें फिर से अपना प्रभाव जमाने का सुअवसर प्राप्त होगा। अब वे निरन्तर मेरे पास रहने लगे। प्रेमाधिक्य के साथ अपने प्रभाव को बढ़ाकर मुझे अपने वश में करने लगे। शैलराज के प्रभाव से उस समय मुझे सारा संसार तृण समान लगता था। झठ बोलना तो मेरे लिये मुख से पानी का कुल्ला थकने के समान सरल था। ऐसे संयोगों में मसखरे मन ही मन मेरी हँसी उड़ाते थे, पण्डित लोग अन्दर ही अन्दर मेरी निन्दा करते थे, धूर्त और चाटुकार लोग मधुर चापलूसी भरे असत्य वचनों से मेरी प्रशंसा करते थे। अर्थात् मेरे भीतर अभिमान और असत्य का ऐसा साम्राज्य स्थापित हो चुका था और मैं उनके इतना वशीभूत हो चुका था कि दोनों पापी-मित्र मेरे अभिन्न अंग बन गये थे। भद्रे ! फिर भी मेरा पुण्योदय मित्र अन्दर से शक्ति प्रदान करता रहा जिसके प्रभाव से कुछ वर्षों तक मैं आनन्दपूर्वक राज्य करता रहा । [४२५-४२८] तपन चक्रवर्ती का प्रागमन
उस समय उग्र प्रतापी आज्ञा वाला, शत्रु को त्रस्त करने वाला और सारे संसार पर अपना सार्वभौमत्व स्थापित करने वाला तपन नामक चक्रवर्ती राजा
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