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________________ ६५० उपमिति भव-प्रपंच कथा फिर भी यह ऐसे निकृष्ट चरित्र वाला कैसे बना ? आपकी ज्ञानदृष्टि में तो इसका स्पष्टीकरण होना ही चाहिये । [४०७-४०८] आचार्य – राजन् नरवाहन ! बेचारे रिपुदारण का इसमें कोई दोष नहीं है । इस बुरे चरित्र का कारण इसके दो मित्र शैलराज और मृषावाद हैं । इन दोनों के कारण ही उसकी ऐसी स्थिति बनी है । [४०६] नरवाहन - महाराज ! ये मृषावाद और शैलराज तो कुमार का बहुत श्रनथं करने वाले हैं, पापी - मित्र हैं । कुमार इन दोनों की संगति से कब छूटेगा ? कृपा कर बताइये । ४१०] आचार्य ने तनिक हँसते हुए कहा- राजन् ! यद्यपि शैलराज और मृषावाद बहुत पापी और अनर्थकारी हैं, फिर भी रिपुदाररण की उन पर बहुत प्रीति है, इसलिये यह सम्बन्ध एकदम नहीं छूट सकता । परन्तु बहुत समय के बाद योग्य कारण के मिलने पर इन दोनों का वियोग हो जायगा । इनके वियोग का कारण क्या होगा ? वह मैं तुम्हें बतलाता हूँ । [४११-४१३] एक शुभ्रमानस नामक नगर है । वहाँ शुद्धाभिसन्धि नामक राजा राज्य करता है जो बहुत प्रसिद्ध और कीर्तिवान है । उसके दो रानियाँ हैं, एक का नाम वरता और दूसरी का नाम वर्यता है । इन दोनों रानियों से राजा को एक-एक पुत्र हुई है । इन दोनों शुभ-पुत्रियों के नाम मृदुता और सत्यता हैं । ये दोनों कन्याएं भुवन को श्रानन्द देने वाली, अति मनोहर, साक्षात् अमृत जैसी, सर्वसुखदात्रो हैं और संसारी प्राणियों के लिये प्रति दुर्लभ हैं। यदि किसी प्रकार तेरे पुत्र का इन कन्याओं से लग्न हो जाय तो उनके संयोग से शैलराज और मृषावाद से कुमार का छुटकारा हो सकता है । क्योंकि, ये दोनों कन्याएं गुण-समूह से पूर्ण हैं जब कि कुमार के मित्र शैलराज और मृषावाद दोषों की खान हैं, अतः दोनों पापी - मित्र एक ही समय एक साथ इन गुणवान कन्याओं के साथ नहीं रह सकते । इन दोनों का लग्न कब और कैसे होगा, कौन करेगा और कैसे संयोगों में होगा, उसकी चिन्ता करने और योजना बनाने वाला तो कोई और ही है, इसमें ग्रापकी योजना या विचार काम नहीं आ सकते । राजन् ! प्रापको अभी जो कार्य करने का उत्साह हुआ है और जिसे करना आपको इष्ट है, वह प्रसन्नता पूर्वक सम्पन्न करिये । [४१४-४१६] आचार्य महाराज के वचन सुनकर नरवाहन विचार करने लगा - - अहा ! मेरे पुत्र के साथ दो बड़े शत्रु निरन्तर रहते हैं, यह तो बहुत ही कष्टदायक बात है, सच ही यह तो बड़ी पीड़ादायक बात है । बेचारा रिपुदारण यथा नाम तथा गुण तो है नहीं । पर, इस विषय में अभी कुछ उपचार हो ही नहीं सकता, तब क्या किया * पृष्ठ ४६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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