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________________ प्रस्ताव ४ : रिपुदारण का गर्व और पतन के पहुंचने से पहले ही उसने जाकर सारी बात चक्रवर्ती से कह दी । इधर मेरे मंत्री और सेनापति प्रादि वहाँ पहुँचे, उन्होंने योग्य विनय किया, पैरों पड़े, अमूल्य भेंट प्रदान की और उसके हृदय को वश में किया । चक्रवर्ती ने सब को बैठने का योग्य स्थान दिया। उसके बाद स्वभावत: चक्रवर्ती ने मेरे सम्बन्ध में कुशल वार्ता पूछी। मंत्रियों ने हाथ जोड़कर कहा- 'महाराज ! आपकी कृपा से रिपुदारण कुशल हैं और आपको नमस्कार करने शीघ्र ही आ रहे हैं।' ऐसा कहकर उन्होंने मुझे बुलाने के लिये कुछ लोगों को भेजा। मुझे बुलाने वाले मनुष्य जब मेरे पास आये उस समय शैलराज और मृषावाद दोनो ने मिलकर एक साथ मुझ पर प्रभूत्व जमा रखा था, अत: उनके पाते ही मैंने कहा- तुम लोग शीघ्र यहाँ से जाओ और मेरे मंत्री, सेनापति आदि सब से कहो कि, 'अरे मूखौं ! पापी दुरात्माओं !! तुम्हें किसने वहाँ भेजा था ? [४३६] मैं तो वहाँ नहीं आऊगा और उन्हें भी अपने जीवन की इच्छा हो तो शीघ्र वापस आ जावें, अन्यथा समझ लें कि उनका जीवन खतरे में है।' मेरे वचन सुनकर मुझे बुलाने के लिये आने वाले लोग वापस चक्रवर्ती के पास गये और मेरे मंत्री, सेनापति आदि को मेरी बात कह सुनाई। तपन चक्रवर्ती को व्यवहार-दक्षता मेरी बात सुनकर बेचारे मंत्री घबरा गये, त्रस्त हो गये और उद्वेग में पड़ गये । दोनों तरफ से जीवन की आशा छोड़कर एक दूसरे का मुख देखने लगे और 'मर्यादा-भंग के विषय में अब क्या करना चाहिये' इस विषय में कुछ भी निर्णय करने में दिङ मूढ़ से असमर्थ बन गये । के तपन चक्रवर्ती बहुत विचक्षण था, वह उन सब की घबराहट और उद्वेग को समझ गया और बोला-अरे लोगों ! धीरज रखो, भय छोड़ो इसमें आप लोगों का कोई दोष नहीं है। रिपुदारण के ढंग कैसे हैं, यह मैं भलीभांति जानता हूँ : मैं स्वय ही रिपुदारण को समझ लगा। आप सब लोगों से तो मुझे इतना ही कहना है कि जो व्यक्ति ऐसा झूठा दुराग्रह रखता है वह नीच है। ऐसे अयोग्य स्वामी के प्रति बहुमान-प्रतिबन्ध (आग्रह) नहीं रखना चाहिये । अर्थात् आप लोगों को रिपुदारण के प्रति जो मान, प्रीति और आज्ञाकारिता है उसे छोड़ देना चाहिये । क्योंकि, रिपुदारण न तो राज्य लक्ष्मी के योग्य है और नहीं आप जैसे योद्धाओं का नेता बनने के योग्य है। कहा भी है- 'मानसरोवर में मोती चुगने वाले और उस सुन्दर सरोवर में अनुरक्त अत्युज्ज्वल रूप वाले राजहंस का नेता कौपा नहीं बन सकता।' [४३७] अत: आप लोगों का उस पर जो भी स्नेह भाव है, उसे तुरन्त छोड़ देना चाहिये। * पृष्ट ४६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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