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प्रस्ताव ४ : रसना, विचक्षण और जड़कुमार
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विराजित चारि धर्मराज महाराजा एवं उनका विशाल परिवार सब विचक्षण के समक्ष स्पष्ट हो गया। चारित्रधर्मराज महाराजा और अन्य राजाओं के उज्ज्वल सद्गुण भी उसे दिखाई देने लगे।
प्राचार्य विचक्षण नरवाहन राजा को अपनी जीवन कथा सुनाते हए कह रहे हैं कि, महाराज ! उस समय मैंने यह सब मानो मेरे सन्मुख ही खड़े हों, ऐसा मैंने प्रत्यक्षतः अवलोकन किया । [३५५-३६२] विचक्षरण की दीक्षा
विचक्षण प्राचार्य ने अपनी कथा को आगे चलाते हुए कहा :-हे महानरेन्द्र नरवाहन ! उस समय विचक्षण ने अपने पिता शुभोदय, माता निजचारुता, पत्नी बुद्धि, साले विमर्श, हृदयांकित प्रिय पुत्र प्रकर्ष को भी साथ ले लिया और अपनी दूसरी पत्नी रसना को भी वदनकोटर में साथ ही रहने दिया। मात्र लोलता दासी को निन्दनीय समझ कर उसको अपमान पूर्वक वहीं छोड़ दिया। उस दासी के अतिरिक्त पूरे परिवार को साथ लेकर वह (विचक्षण) गुणधर आचार्य के पास पहुँचा और उनके पास दीक्षा स्वीकार की। हे राजन् ! फिर दीक्षा ग्रहण की है ऐसा मानता हुअा वह उस अद्भुत जैनपुर में अन्य महात्मा साधुओं के बीच रहने लगा। फिर गुणधर प्राचार्य ने अपना समग्र आचार विक्षचरण मुनि को सिखाया । उस प्राचार की उसने भक्तिपूर्वक आराधना को जिससे रसना इतनी निर्माल्य बन गई कि वह लगभग विसर्जन (टूट पड़ने) की स्थिति में आ गई। उसने उसक ऐसी स्थिति बनादी थी कि वह कुछ भी कर नहीं सकती थी, वह बिलकुल निरर्थक जैसी हो गई थी । अन्त में गुरु महाराज ने विचक्षण मुनि को अपने पद पर स्थापित कर आचार्य बनाया । यद्यपि विचक्षणाचार्य घूमते-फिरते अन्य स्थान पर भी दृष्टिगोचर होते हैं तथापि परमार्थ से वे विवेक महागिरि के शिखर पर स्थित जैनपुर में ही निवास करते हैं, ऐसा ही समझना चाहिये । महाराज नरवाहन ! मैं ही वह विचक्षण कुमार हूँ जो अब विचक्षण प्राचार्य के नाम से प्रसिद्ध हो गया हूँ। विवेक पर्वत पर जो मुनिपुगव रहते हैं, वे ये ही साधु हैं जो अभी आपके सामने बैठे हैं। राजन् ! आपने मुझे पूछा था कि इतनी छोटी उम्र में मेरे वैराग्य का क्या कारण था ? उसका उत्तर मैंने प्रापको विस्तार पूर्वक सुनाया है । * मेरी उपरोक्त वणित आत्मकथा ही मेरी दीक्षा का कारण थो।
रसना कथानक सम्पूर्ण ।
* पृष्ठ ४६१
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