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३६. नरवाहन-दीक्षा [ अनेक रहस्यों से पूर्ण रसना की मूलोत्पत्ति का पता लगाने की योजना और पूरे भवचक्र के अद्भुत स्वरूप को बताने वाले मामा एवं भाणेज के प्रसंग से विकसित तथा कवित्व के चमत्कारों से सुशोभित भब्य एवं विशाल अपनी आत्मकथा विचक्षणसूरि ने पूर्ण की। उसमें उन्होंने श्रोताजनों को भिन्न-भिन्न रसों का पान कराया।]
आत्मकथा पूर्ण कर विचक्षणाचार्य रुके नहीं, उन्होंने बात आगे बढ़ाई, वे ज्ञान का फल प्राप्त करने के प्रसंग को समझाने लगे। वे बोले - राजन् ! स्त्री के दुःख और दोष से बचने के लिये मैंने दीक्षा ली, ऐसा कहा जाता है, पर अभी तक मैंने उस पापिनी (पान्तरिक स्त्री रसना अपर नाम जिह्वा का) सर्वथा त्याग नहीं किया है। मेरे समस्त कुटुम्ब (आन्तरिक कुटुम्ब) का भी मैं अभी तक कम या अधिक रूप में पालन-पोषण कर ही रहा हूँ। ऐसे संयोगों में मेरी सच्ची दीक्षा कैसे हो सकती है ? तथापि राजन् ! आपका मेरे प्रति इतना आदर और उच्चभाव क्यों है ? इसका कारण मेरी समझ में नहीं आता। [३६३-३६५] कहा भी है कि :
दोष वाले प्राणियों में गुणों का आरोप करने वाले और संसार में आह्लाद उत्पन्न करने वाले, जिनके सौन्दर्य की तुलना किसी से नहीं की जा सकती ऐसे विशुद्ध आन्तरिक भाव वाले सज्जनों की प्रकृति का हो यह गुण हो सकता है।
सन्त पुरुषों की दृष्टि किसी अपूर्व धनुष-यष्टि जैसी होती है । क्योंकि, धनुष-यष्टि तो किसी अवसर पर ही गुणारोपण करती है, परन्तु सन्त पुरुषों की दृष्टि तो बिना प्रसंग भी गुणारोपण करने को तत्पर रहती है । [३६७]
अथवा, हे राजन् ! त्रैलोक्य द्वारा वन्दनीय यह जैन-लिंग (मुनिवेष) जिन्होंने धारण कर रखा है और जिन्होंने अपने आन्तरिक शत्रुओं को मार भगाया है, उस वेष का ही यह गुण हो सकता है । [३६८]
जिनके हाथों में जैन-लिंग (वेष) प्राप्त हुआ दिखाई देता है उन्हें देव और देवों के राजा इन्द्र भी अत्यन्त भक्तिभाव से पजते हैं, सेवा करते हैं और आदर सन्मान देते हैं। [२६६]
राजा ! यद्यपि मैं अभी भी मेरे परिवार (आन्तरिक) के साथ हूँ, अतः गृहस्थाचार-धारक ही हैं, फिर भी आप मुझे ऐसा दुष्कर कार्य करने वाला (दीक्षा लेकर श्रमण-धर्म पालने वाला) मानते हैं, इसका कारण जैनलिंग के अतिरिक्त क्या हो सकता है ? [३७०]
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