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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
रहे थे । जैसा कुलटा मुक्तहास करती है वैसे ही वर्षा ऋतू दौड़ते हुए सफेद बादलों पर अट्टहास (मुक्त हास) कर रही थी। मेघों को देखकर पर्वतों ओर वनों में मोर नाच रहे थे मानों कामी पुरुषों के मन कुलटा को देख-देख कर नाच रहे हों। वर्षा ऋतु का दृश्य अति आकर्षक और मनोहर था, मानो कुलटा ने लोगों को रिझाने के लिये आकर्षक और सुन्दर रूप धारण किया हो। सुगन्धी कदम्ब वृक्षों के फूलों की गंध चारों तरफ फैल रही थी, मानो कुलटा अपने शरीर पर इत्र छिड़क कर वातावरण को सुगन्धित कर रही हो । अधिक वर्षा से पहाड़ भी कट रहे थे, मानो कुलटा, जार पुरुष को अपने वश में कर उसे तोड़ने में समर्थ हो गई हो। इस प्रकार अपने रूप, विलास और कपट से अपनी सत्ता सर्वत्र फैला कर वर्षा ऋतु कुलटा की तरह शोभित हो (हंस) रही थी । [२६९-३०१]
ऐसी वर्षा ऋतु को देखकर प्रकर्ष अपने मन में बहुत प्रसन्न हया और वापस घर लौटने की इच्छा से मामा से बोला- मामा ! अब शोघ्र पिताजी के पास चलना चाहिये, क्योंकि हवा ठंडी हो गई है जिससे मार्ग सुगम हो गये हैं, अब रास्ता काटने में कठिनाई नहीं होगी। ।३०२-३०३]
उत्तर में विमर्श बोला--भाई ! तू क्या कह रहा है ? आजकल तो यात्रियों का आवागमन बन्द रहता है, क्या तू यह नहीं जानता है ? [३०४]
आज कल तो यात्रा (प्रवास) स्थगित कर एवं प्रवास से लौटकर लोग अपने-अपने भली प्रकार आच्छादित घरों में रहकर स्वतन्त्रता पूर्वक स्त्री के मुख-चन्द्र का अवलोकन करने में अपने को भाग्यशाली मानते हैं। देखो, वत्स ! इसके कारण भी स्पष्ट हैं. इस समय रास्ते पानी से भर जाते हैं और चारों तरफ कीचड़ ही कीचड़ हो जाता है। ऐसे में जरा पांव फिसल जाने से गिर जाय ता अादमा की हालत देखने लायक ह बन जाती है, ऐसा लगता है मानो मिट्ट के ढेर आदमी की हंसा उड़ा रहे हों। जो भाग्यहीन पापी प्राणी इस ऋतु में परदेश जाने के लिये निकलते हैं उन पर वर्षा की मोटी-मोटी धाराओं की मार से मार करता हा मेघ गर्जारव करता है। भाई प्रकर्ष ! ऐसी ऋतु में यात्रा की बात छोड़। इतने दिन यहाँ रहे तो थोड़े दिन और रह जायेंगे । यहाँ जो समय व्यतीत होगा वह हानिकारक नहीं अपितु लाभदायक ही होगा। क्योंकि, यहाँ बीता प्रत्येक क्षण तुम्हारे अभ्युदय की वृद्धि करने वाला है।
[३०५-३०६]
प्रकर्ष ने भी अपनी सहमति प्रकट को तब मामा और भाणेज जैनपुर में चार माह रहे । वर्षाकाल पूर्ण होने पर, सहर्ष उन्होंने धर की तरफ प्रस्थान किया [जो कार्य उन्हें सौंपा गया था. वह कार्य सिद्ध हो चुका था और उन्हें अत्यधिक जानने-सीखने को मिला था अतः वे मन में अत्यन्त हर्षित हो रहे थे।] [३१०]
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