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________________ प्रस्ताव ४ : कार्य-सम्पादन-रपट ६३६ चन्द्रकिरणें आँखों को शीतलता प्रदान कर रही थी, जलाशय हृदय को उल्लसित कर रहे थे और मोती की मालायें हृदय को सुहावनी लग रही थीं । सुन्दर महलों की विस्तृत खुली छतें चित्त हरण कर रही थीं और पूरे शरीर पर चन्दन का लेप अत्यन्त प्रिय लग रहा था । सिर पर चल रहे पंखे अमृत समान लग रहे थे, ठण्डे फूलों के अंकुरों से बनी शय्या मन को सुख प्रदान कर रही थी और चन्दन का पानो शरीर के बाहरी भागों पर लगाने पर भी शरीर के भीतर रहने वाले मन को शान्ति प्रदान कर रहा था। जैनपुर में स्थिरता ऐसे समय में मामा विमर्श ने अपने भाणेज प्रकर्ष से कहा कि वत्स ! चलो अब अपने देश की अोर वापस चलें । [२६३] प्रकर्ष- मामा ! यह समय तो वापस लौटने के लिये बहुत ही भयंकर है। ऐसी भीषण गर्मी में यात्रा करना मेरे लिये तो अति कठिन है। ये दो महिने तो भीषण गर्मी के कारण यात्रियों के लिये अत्यन्त ही संतापदायी हैं, अतः ग्रीष्म ऋतु यहीं ठहर कर बितालें । बाद में दिशाए ठंडी होने पर चलेंगे तो मैं शीघ्रता से चल सकूगा । मामा ! हम दोनों विचारक हैं अतः जेनपुर में अधिक रहें तो इसमें हमें लाभ ही है । हमारा यहाँ का निवास व्यर्थ नहीं जायगा। इस गुण-सम्पन्न नगर में रहने से मेरी स्थिरता में वृद्धि होती जा रही है और मेरे गुरण-लाभ को जानकर पिताजी को भी इस स्थान के प्रति आदर उत्पन्न होगा जिससे वे हमारे यहाँ अधिक रहने से अप्रसन्न नहीं होंगे । [२६४-२६७] विमर्श-तेरी ऐसी इच्छा है तो कोई बात नहीं, यहीं जैनपुर में ही रुक जाते हैं । मामा के उत्तर से प्रकर्ष अत्यन्त प्रसन्न झा । मामा-भाणेज उस नगर में दो माह अधिक रहे । वहाँ रहते हुए वर्षा ऋतु आ पहुँची, वह कैसी है ? [२६८] वर्षा ऋतु-वर्णन यह वर्षा ऋतु संसार में कुलटा स्त्री जैसी शोभित हो रही थी। जैसे कुलटा स्त्री अपने धन-उन्नत पयोधरों के भार को वहन करती हुई, * उज्ज्वल अलंकारों की विद्य त चमक से चकाचौंध करती हुई, अपनी गर्जनरूप धीर मधुर स्वर-ध्वनि करती है वैसे ही काले ऊंचे जल से भरे बादलों के भार को वहन करती, बिजली चमकाती, गर्जना करती वर्षा ऋतु आ रही थी। जैसे कुलटा अपने जार पुरुष को छिपा देती है वैसे ही वर्षा ऋतु में बादल सूर्य को छिपा देते हैं। जैसे मत्त कामी पुरुष कुलटा के प्रति दूर से ही आवाजें कसते हैं वैसे ही वर्षा में मेंढ़क टर्र-टर्र कर * पृष्ठ ४५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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