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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
मामा ने कहा- भाई ! मेरी तो सर्वदा यही इच्छा रहती है कि तुझे अधिकाधिक सुख कैसे प्राप्त हो । मैं तो तेरे वश हूँ, फिर तेरी ऐसी शोभन इच्छा को भंग कैसे कर सकता हूँ ? बहुत अच्छा, कुछ दिन यहीं रहते हैं । [२८७]
प्रकर्ष-मामा ! आपने सहमति प्रदान कर मुझ पर बड़ा उपकार किया है।
इस वार्तालाप के बाद मामा-भाणेज दो माह तक जैनपुर में रहे, क्योंकि रसना के मूल का पता लगाने उन्हें जो एक वर्ष का समय मिला था वह अभी पूर्ण नहीं हुआ था, दो माह शेष थे। [२८८]
३७. कार्य-सम्पादन-रपट [विमर्श और प्रकर्ष विवेक पर्वत-स्थित जैनपुर में दो माह रहे और अनेक सदगुणों का साक्षात्कार किया। अनेक शुभ दृश्य देखे और विमर्श ने प्रकर्ष की विविध जिज्ञासाएं पूर्ण की।]
इधर मानवावास नगर में महादेवी कालपरिणति की आज्ञा से वसन्त ऋतु ने अपना समय पूर्ण किया और उधर दारुण ग्रीष्म ऋतु का आगमन हुआ। । ९८६] ग्रीष्म ऋतु-वर्णन
संसार रूपी भट्टी के मध्य में स्थित और लोहे के गर्म गोले को तरह जगत को दाह प्रदान (जलाने) करने वाला सूर्य तीव्र उष्णता से तमतमा रहा था।
[२६०] प्रचर पत्रों के खिर जाने से वृक्ष पत्रहीन हो रहे थे, प्राणियों के शरीर का बल घट रहा था, लोग नदी की धाराओं का अधिक पानी पी रहे थे फिर भी प्यास से उनके कण्ठ सूख रहे थे, भयंकर गर्मी से लोग जल रहे थे और पसीने से त बतर होकर मन में बार-बार खिन्न हो रहे थे। संसार को तप्त करने वाली ल (गर्म हवा) इतने वेग से चल रही थी कि सूखे पत्ते मर-मर शब्द कर रहे थे। [२६१]
जैसे स्वामी का अभ्युदय होने पर उसके अधीनस्थ सभी सेवकों की भी संतोष से [प्रसन्नता में] वृद्धि होती है, वैसे ही सूर्य के प्रताप (तेज) के बढ़ने से संतुष्ट होकर दिन भी बड़ा हो गया था। [२६२]
इस ऋतु में मोगरा विकसित हो रहा था, लाल लोध्रवृक्ष फल रहे थे, शिरीष के वृक्षों पर इतने फूल आ गये थे कि समग्र वन हरे-भरे दिखाई दे रहे थे।
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