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________________ ६० उपमिति-भव-प्रपच कथा इस संक्षिप्त कथासार से स्पष्ट हो जाता है कि पूरी 'उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा में हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य (मैथुन) और परिग्रह में लिप्त होने से, तथा क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह के वशोमूत होकर पञ्चेन्द्रियों के विषयों में लोलुपता रखने से, जीवात्मा को अनगिनत आपदानों से घिर जाना पड़ता है। इन्हीं सब से 'भव' का 'प्रपञ्च' विस्तार/विकास को प्राप्त होता है, जिसमें फंसा जीवात्मा कभी नारकियों का, देवों का और कभी-कभी पशु-पक्षियों आदि का जन्म प्राप्त करके संसारी बना पड़ा रह जाता है । संयोगवश पुनः प्राप्त मानव-जीवन को दुबारा भी, इन्हीं सब विषय-विकारों में उलझा कर बरबाद कर दिया गया, तो न जाने फिर कब, उसे यह दुर्लभ मानव देह मिल पायेगी। इसलिए, निविकार, शुभ्रचित्त से 'सदागम' की शरण स्वीकार कर यह प्रयास करना चाहिए कि निवृत्ति नगर का वह निवासी बन सके । सिद्धर्षि के इस कथा-ग्रन्थ के नाम से ही पाठक के मन में यह सहज जिज्ञासा उठती है कि आखिर यह 'भव-प्रपञ्च' क्या है ? जिसे लक्ष्य कर के, इतना विशाल ग्रन्थ रचा गया। इस प्रश्न का उत्तर, स्वयं सिद्धर्षि ने, विवेकाचार्य के द्वारा अपनी रचना में दिया है । इसे इस प्रकार समझना चाहिए। प्रायः सब प्राणी, अनादिकाल से असंव्यवहारिक राशि में रहते हैं । जब प्राणी वहाँ रहता है, तब, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि प्रास्रव द्वार (कर्मबन्ध के हेतु) उसके अन्तरङ्ग स्व-जन-सम्बन्धी होते हैं। जैन ग्रन्थों में वरिणत अनुष्ठान द्वारा विशुद्ध मार्ग पर पाकर, जितने प्राणी, कर्म से मुक्त होकर मुक्ति पाते हैं, उतने ही जीव असंव्यवहार राशि में से निकलकर व्यवहार राशि में आते हैं। यह केवलज्ञानियों के वचन हैं। इस असंव्यवहार राशि में से बाहर निकले जीव, बहुत समय तक एकेन्द्रिय जाति में अनेक प्रकार की विडम्बना भोगते हैं। विकलेन्द्रिय से लेकर पांच इन्द्रियों वाली तिर्यञ्च जाति में परिभ्रमण करते हैं और अनेकविध कष्ट/दु:ख भोगते हैं । भिन्न-भिन्न अनन्त भवों में सहन/भोग करने के लिये, बंधे हये कर्मजाल परिणामों को भोगते हुए, भवितव्यता के योग से, बार-बार नये-नये रूप धारण करते हैं। अरहट घटी की तरह, ऊपर-नोचे घूमते रहते हैं । और, यहाँ पर वे सूक्ष्म और बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति कायिक जीव-रूप धारण करते हैं। कई बार, वे द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय, संज्ञी पञ्चेन्द्रिय, जलचर, स्थलचर, और नभचर तिर्यञ्चों का रूप धारण करते हैं । इस प्रकार नानाविध विचित्र रूपों में अनेक स्थानों पर भटकते हुए जीव को महान् कठिनता से, मनुष्य भव मिलता है। जैसे समुद्र में डूबते हुए को रत्नद्वीप मिल जाये, महारोग से जर्जरित को महोदधि, विषमूच्छित को मंत्रज्ञाता, दरिद्री को चिन्तामरिण की प्राप्ति जितनी कठिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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