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________________ प्रस्तावना नन्दिवर्द्धन को 'क्रोध' और 'हिंसा के चंगुल में फंस जाने पर, किस-किस तरह की दारुण व्यथाएँ सहनी पड़ीं, और किन-किन भवों में भ्रमित होना पड़ा, यह सब बतलाया गया है। मनुजगति नगरी के भरत प्रदेश में क्षितिप्रतिष्ठ नगर के राजा 'कर्मविलास' की दो रानियां थीं-शुभसुन्दरी, और अकुशलमाला । शुभसुन्दरी का पुत्र है-'मनीषी' और अकुशलमाला का पुत्र होता है---'बाल' । बाल को 'स्पर्शन' की कुसंगतिवश जो कष्ट भोगने पड़े, और तदनुसार, उसे जिन-जिन भवों में भ्रमित होना पड़ा, उस सबका व्यापक वर्णन है। 'बाल' के रूप में भी 'संसारीजीव' (द्वितीय प्रस्ताव) चोर, के भव-वर्णन को समझना चाहिए। चतुर्थ प्रस्ताव में-सिद्धार्थ नगर के राजा नरवाहन और उनकी रानी विमलमालती के पुत्र रिपुदारण को 'असत्य' और 'मान' (गर्व-घमण्ड) के वशीभूत हो जाने से, तथा भूतल नगर के राजा मलसंचय और उनकी पत्नी 'तत्पंक्ति' के दो बेटों-शुभोदय और अशुभोदय, में से अशुभोदय की पत्नी स्वयोग्यता के पुत्र राजकुमार 'जड़' को 'रसना' की आसक्ति लुब्धतावश, तथा पांचवें प्रस्ताव में-वर्धमान नगर के श्रेष्ठी सोमदेव और सेठानी कनकसुन्दरी के लड़के वामदेव को 'चौर्य' और 'माया' का वशवर्ती बनने से, तथा धरातल नगर के राजा शुभविपाक के अनुज अशुभविपाक की पत्नी परिणति के पुत्र मन्दकुमार को 'घ्रारण' के प्रति लगाव होने से, छठवें प्रस्ताव में-आनन्दपुर के श्रेष्ठी हरिशेखर एवं सेठानी बंधुमती के पुत्र धनशेखर को 'मैथुन' और 'लोभ' का वशंवद हो जाने से, तथा मनुजगति के राजा जगत्पिता 'कर्मपरिणाम' व जगन्माता महादेवी के छः पुत्रों में से द्वितीय पुत्र 'अधम' को विषयाभिलाष की पुत्री दृष्टिदेवी के साहचर्य से, सातवें प्रस्ताव में साह्लाद नगर के राजा जीमूत और उनकी पटरानी लीलादेवी के पुत्र धनवाहन को 'महामोह' और 'परिग्रह' के सम्पर्क से, तथा क्षमातल नगर के राजा 'स्वमलनिचय' और उनकी रानी 'तदनुभूति' के दूसरे पूत्र 'बालिश' को कर्मपरिणाम की कन्या 'श्रति' के सहवास से कैसी-कैसी भयंकर यातनाएं, पीड़ाएं भुगतनी पड़ीं, और किन-किन योनियों में कितनी-कितनी बार जन्म-मरण लेना पड़ा, इत्यादि का वर्णन, अवान्तर कथाओं सहित किया गया है। आठवें प्रस्ताव में चार विभाग हैं। इनमें से पहिले विभाग में - सप्रमोद नगर के राजा मधुवारण और उनकी पटरानी सुमालिनी के यहाँ गुरगधारण के रूप में 'संसारी जीव' जन्म लेता है। इसके जीवनवृत्त द्वारा यह बतलाया गया है कि 'कर्म' 'काल' 'स्वभाव' 'भवितव्यता' का क्या कार्य है ? इन सबके संयोग सहयोग से किस तरह पुण्योदय और पापोदय पाते-जाते हैं ? दूसरे विभाग में, उस रहस्य को सुलझाया गया है, जो कथा के प्रारम्भ होने के साथ-साथ, पाठक के मस्तिष्क में भी घर कर चुका था। तीसरे विभाग में, समस्त प्रमुख पात्रों का सम्मिलन कराकर उनकी जीवन-प्रगति का निर्देश किया गया है, और चौथे विभाग में ग्रन्थ का सारा का सारा रहस्य स्पष्ट हो जाता है । अन्त में, प्रशस्ति के साथ ग्रन्थ पूर्ण हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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