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उपामति भव-प्रपंच कथा
से प्रकाशमान यह जैन नगर ही रह सकता है । समस्त कार्यों का उपदेश देने वाला, प्राणी को अच्छे मार्ग पर ले जाने वाला यह दूसरा प्रधानतम पुरुष सदागम ही है । [२२५-२३०]
तीसरा जो प्रधान पुरुष दिखाई देता है वह सद्बोध मन्त्री का मित्र अवधि है । यह भी अपने अनेक रूपों का विस्तार करता है और लोगों को आनन्दित करता है । कभी यह बहुत दीर्घरूप और कभी छोटा रूप कभी थोड़ा तो कभी अधिक रूप धारण कर इस संसार में अपनी लीला से दूरस्थित वस्तु को भी देख लेता है । [२३१-२३२]
वत्स ! सद्द्बोध मन्त्री के पास जो चौथा प्रधान पुरुष दिखाई देता है, उसका नाम मनपर्य है । यह अपनी शक्ति से अन्य प्राणियों के मन के भावों को जान सकता है । यह ऐसा महाबुद्धिशाली कुशल पुरुष है कि मनुष्य लोक में ऐसा एक भी मनोगत भाव शेष नहीं रहता जिसे यह न जान सकता हो । [२३३-२३४]
भैया ! सब से अन्त में जो पाँचवां पुरुष दिखाई दे रहा है वह सद्द्बोध मन्त्री का विशिष्ट मित्र केवल है जो लोक में विश्रुत है । यह भूत, भविष्य और वर्तमान काल के सकल पदार्थों, भावों और मन की विचार-तरंगों को जान सकता है । संसार में जानने योग्य कोई भी पदार्थ, भाव, अध्यवसाय या घटना ऐसी नहीं है जिसे यह नरोत्तम नहीं जानता हो । जैनपुर से जो निवृत्तिनगर जाते हैं उन पुरुषों का यह पुरुषोत्तम केवल प्रकृति से ही नायक है, अग्रगण्य है । [२३५-२३६] मनुष्य लोक में साक्षात् सूर्य समान सद्द्बोध मन्त्री अपने पाँच मित्रों और परिवार के साथ आनन्द से रहता है । [ २३७]
इतना कहकर मामा विमर्श थोड़ा रुका तो भाणेज ने उससे शंकासमाधान प्रारम्भ कर दिया ।
प्रकर्ष- - मामा ! आपने सद्बोध मन्त्रो और चारित्रधर्मराज के परिवार को दिखाया यह तो ठाक किया, पर संतोष महाराजा के दर्शन करने की मेरे मन में उत्कट अभिलाषा है, उनका दर्शन आपने अभी तक नहीं करवाया है । [ २३८ ]
संतोष तन्त्रपाल
विमर्श - भाई ! देख, इस संयम नामक ( श्रमरणधर्म युवराज के छठे मित्र) के आगे जो व्यक्ति बैठा है, वही निश्चय से संतोष है । इसमें कोई संदेह नहीं है । [२३६]
प्रकर्ष - जिस संतोष के साथ शत्रुता के कारण महामोह आदि बड़े-बड़े राजाओं का मन विक्षिप्त हो गया है और उससे लड़ने के लिये उसके विरुद्ध आकर खड़े हुए हैं, क्या वह संतोष वास्तव में कोई बड़ा राजा नहीं हैं ? [ २४० ]
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