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________________ ६३२ उपमिति-भव-प्रपंच कथा , सम्यक्दर्शन की पत्नो सुदृष्टि भेया प्रकर्ष ! सम्यक्दशंन के पास ही अत्यन्त शोभनाकृति वाली और अन्य के मन को आकर्षित करने वाली जो अत्यधिक सौन्दर्यवती स्त्री बैठी है वह सम्यकदर्शन की पत्नी है जो सुदृष्टि के नाम से प्रख्यात है। सन्मार्ग में अपनी शक्ति का सदुपयोग करने वाली सुदृष्टि की विधि पूर्वक सेवा करने से, वह जैनपुर के लोगों का मन सर्वदा स्थिर करती है। [२०७-२०८] सम्यकदर्शन की व्यवस्था भैया ! अब तुझे पागे-पीछे की कुछ बात कहकर संदर्भ याद करवाता हूँ। तुझे याद होगा कि महामोह के प्रधानमन्त्री और सेनापति मिथ्यादर्शन का वर्णन करते समय मैंने बताया था कि वह अतिशय विचित्र चरित्र वाला है, साथ में उसकी पत्नी कुदृष्टि का भी वर्णन किया था। चारित्रधर्मराज और मोहराज के इन दोनों सेनापतियों को तुमने देखा है। सम्यकदर्शन सेनापति की सर्व चेष्टायें मिथ्यादर्शन सेनापति से विपरीत दिखाई देगी। सम्यकदर्शन की सर्व चेष्टायें संसार को आनन्दित करने वाली हैं। इसकी चेष्टानों/व्यवहारों पर जैसे-जैसे अधिकाधिक विचार किया जाय वैसे-वैसे वे अत्यधिक सुन्दर प्रतीत होती हैं। मिथ्यादर्शन मोहराजा की सेना को नित्य तैयार करता है, सुगठित, अनुशासित और शिक्षित करता है। इधर सम्यकदर्शन सेनापति चारित्रधर्मराज की सेना को सुशिक्षित और सुगठित करता है। यह सम्यक्दर्शन सेनापति मिथ्यादर्शन का वास्तविक शत्रु है और इसीलिये उसकी इस पद पर व्यवस्था (नियुक्ति) हुई है। [२०६-२१२] सम्यकदर्शन के तीन रूप __ इस सम्यकदर्शन सेनापति के तीन रूप दिखाई देते हैं, वे भिन्न-भिन्न कारणों से हैं। कभी वे क्षायिक रूप में सामने आते हैं, अर्थात् मिथ्यादर्शन की सारी सेना को मारकर उसकी सारी सामग्री अपने अधीन कर लेते हैं। कभी औपशमिक रूप से सामने आते हैं. अर्थात् थोड़े समय के लिये मिथ्यादर्शन की सेना को हराकर अपता साम्राज्य स्थापित कर देते हैं। कभी क्षयोपमिक रूप से सामने आकर मिथ्यादशंन की कुछ सेना का नाश कर देते हैं और कुछ को हराकर दबा देते हैं। भैया! इसके ये तोनों रूप उसके स्वभाव (प्रकृति) के कारण ही हैं । अथवा इस सम्यकदर्शन सेनापति के साथ मत्रो सदबोध रहता है, वही सेनापति के स्वभावानुसार उनके भिन्न भिन्न रूपों को सम्पादित (प्रस्तुत) करता है । [२१३-२१४] सबोध मन्त्री भाई प्रकर्ष ! तुझे सद्बोध मन्त्री की भी पहचान करा दूं। पुरुषार्थ करने में यह मन्त्री बेजोड़ है । तीन भवन में पुरुषार्थ को साधित करने वाली एक भी ऐसी * पृष्ठ ४५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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