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३६. चारित्रधर्मराज का परिवार
[ जिसके सुनने मात्र से शान्ति उत्पन्न हो ऐसे चारित्रधर्मराज, उनके पुत्र और पत्रवधुओं का वर्णन सुनकर प्रकर्ष के आनन्द का पार न रहा। चारित्रधर्मराज के परिवार में अनेक प्रकाशमान पवित्र रत्न जगमगा रहे थे, जिनका वर्णन सुनने के लिये बुद्धिदेवा का पुत्र प्रकर्ष उत्सुक हो रहा था। क्षण भर रुककर बूद्धिदेवी के भाई विमर्श ने वणन आगे चलाया ।]
सम्यकदर्शन सेनापति
वत्स प्रकर्ष ! महाराजा चारित्रधर्मराज के दानों पुत्रों की देखरेख और पोषण के लिये महाराजा ने सेनापति एवं प्रधानमन्त्री के तौर पर जिस व्यक्ति को नियुक्त किया है, वह भी यहीं बैठा है। इसका नाम सम्यकदर्शन है। ये राजपत्र इसके बिना कदापि अकेले दृष्टिगोचर नहीं होते । ऐसा प्रबन्ध कर दिया गया है कि सम्यकदर्शन सेनापति राजपत्रों के अत्यन्त निकट रहकर अत्यन्त वात्सल्यपूर्वक दोनों की वृद्धि और स्थिरता कराते हैं। पहले के प्रकरण में यह बताया गया था कि जैनपर में सात तत्त्व हैं-जीव, अजीव, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष; जिनका संक्षिप्त परिचय भी वहाँ दिया गया था। ये सेनापति इन सातों के विषय में दृढ निश्चय कराते हैं और समझाते हैं कि इन सात तत्त्वों में समस्त पदार्थों का न्यायपर्वक समावेश हो जाता है और इनके अतिरिक्त कोई अन्य पदार्थ शेष नहीं रहता। तदतिरिक्त यह सम्यकदर्शन भवचक्र नगर के प्राणियों को भवचक्रसे पराङ मुख बनाता है और उस नगर में से निकलने का इच्छा वाला बनाता है। साथ ही भवचक्र पराङ मुख से प्राणियों को समता धारण करवाता है, समग्र स्थूल पदार्थों पर विरक्ति दिलवाता है, संसार पर उदासीनता उत्पन्न करता है, सकल जीवों पर अनुकम्पा उत्पन्न कराता है और शुद्ध देव पर पूर्ण आस्तिकता का भाव जागृत करता है। अर्थात् सेनापति सम्यकदर्शन शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिकता इन पाँच महान गुणों से सुशोभित है। यह प्राणियों से कहता है कि सभी जीवों पर मैत्री भाव रखो, गणवान को देखकर प्रसन्नता प्रकट करो. दीन-दुःखी को देखकर उन पर दया करो, (से दुःख से बचाने का प्रयत्न करो, भविष्य में उसके दु:ख कैसे कम हो ऐसी योजना बनानो), पाप करने वाला अपने कर्मों के अधीन है, उसके लिये आप उत्तरदायी नहीं है, उपाय करने पर भी यदि वह न सुधरे तो उसके प्रति माध्यस्थभाव रखो। ऐसे-ऐसे उत्कृष्ट विचारों से यह सम्यकदर्शन जैनपुर के निवासियों के मन को निरन्तर निर्मल बनाता है और निर्वत्तिनगर जाने की दृढ़ इच्छा उत्पन्न कर प्राणी को प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा निर्वत्तिनगर की ओर ले जाता है। [२०२-२०६]
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