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३४. चारित्रधर्मराज
[आज प्रकर्ष के आनन्द का कोई अोर-छोर ही नहीं था। वह सात्विकमानसपुर, चित्त-समाधान मण्डप, वेदी और सिंहासन के तत्त्वचिन्तन में डूब गया। इस चिन्तन से उसके मन की मधुरता बढ़ती गई और जीववीर्य सिंहासन पर बैठे राजा का वर्णन सुनने के लिये वह अधिक उत्सुक हो गया।
प्रकर्ष का चिन्तन पूरा होने पर उसने राजा का वर्णन सुनाने के लिये मामा से प्रार्थना की। इस पर बुद्धिदेवी के भाई विमर्श ने राजाधिराज के स्वरूप का वर्णन करना प्रारम्भ किया। चतुर्मुख राजाधिराज
भाई प्रकर्ष ! यह राजा जो यहाँ दिखाई दे रहा है वह लोगों में चारित्रधर्म के नाम से प्रसिद्ध है । और, वह स्वयं अत्यन्त सुन्दर है। इस राजा में अनन्त शक्ति का भण्डार भरा हुआ है, जिससे वह संसार का हित करने में तत्पर रहता है । इसकी दण्ड-पद्धति भी साधना से परिपूर्ण है; जो समझने योग्य है। वह सर्व गुणों की खान और अत्यन्त विश्रुत है । वत्स ! इनको ध्यान पूर्वक देखो, इनके चार मुख हैं। इन चार मुखों के क्या-क्या नाम हैं और इनकी कितनी शक्ति है, वह बताता हूँ। इनके नाम क्रमशः दान, शील, तप और भाव हैं। इनके क्या-क्या कार्य हैं, सुनो।
[१०६-११०] १. दान-मुख
इन चारों में सब से प्रथम दान मुख है। यह जैनपुर निवासी पात्रों में मोहराजा का नाश करने के लिए सत्य का ज्ञान फैलाता है और संसार के सभी प्राणियों को प्रिय अभय का सर्वत्र प्रसार करता है । यही मुख यह भी कहता है कि विशुद्ध धर्म के आधारभूत शरीर को सहायता प्रदान करने हेतु आवश्यक वस्त्र, पात्र,
आहार, आदि का सुपात्र को दान देना चाहिये । किसी गरीब, अन्धे, पंगु, लंगड़े, दीनहीन को देखकर उसके प्रति दया आने से उसे आहार आदि देने का यह मुख कभी निषेध नहीं करता। कई लोग गाय, घोड़ा, जमीन, या सोना आदि का दान देने का भी उपदेश देते हैं, पर ऐसे दान से किसी प्रकार का गुण (लाभ) नहीं होता, अत: यह मुख ऐसे दान का उपदेश नहीं देता। यह दान-मुख सदाशयकारक, आग्रह को दूर करने वाला और संसार में दया फैलाकर बंधुभाव का प्रसार करने वाला है। भद्र ! इस प्रकार दान नामक प्रथम मुख का वर्णन किया, अब मैं राजाधिराज के दूसरे शील नामक मुख का वर्णन करता हूँ, सुनो। [१११-११६]
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