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उपमिति-भव-प्रपंच कथा मानसपुर का वर्णन तो अकाम निर्जरा की अपेक्षा से प्राणी में उत्पन्न ज्ञानरहित मिथ्यादष्टि के उत्कट वीर्य जैसा है। (जैसे नदी में पत्थर घिसते-धिसते अपने आप गोल हो जाते हैं, वैसे ही कुटते-पिटते प्राणी को अपने आप अकाम निर्जरा हो जाती है। आत्म-प्रदेश से कर्म अवश्य छट जाते हैं, पर उस समय उसे योग्य-अयोग्य का ज्ञान नहीं होता । साधारणतः प्रोघदशा को छोड़कर जब प्राणी धर्म की और उन्मुख होता है, तभी यह दशा प्राप्त होती है।) सात्विक-मानसपुर के निवासी विशुद्ध ज्ञानरहित सात्विक मन के कारण बिबुधालय में जाते हैं। फिर जैनधर्म के सिद्धान्तों को जाने बिना भी मात्र कर्मों की निर्जरा से प्रारणी में ऐसी बुद्धि उत्पन्न हो जाती है कि वह स्वयं को धन, स्त्री, पुत्र, शरीर आदि से भिन्न समझने लगता है और यह भी जानने लगता है कि महामोहादि राजा अत्यन्त दुष्टतम शत्रु हैं, महान भयंकर हैं । ऐसी बुद्धि की प्राप्ति को ही विवेक कहा जाता है। विवेक के आने से कितने ही प्राणियों के दोष कम हो जाते हैं, क्योंकि वे विवेक के कारण से कषायों से पीछे हट जाते हैं। ऐसे प्राणियों में जो अप्रमादीपन अाता है उसी को * अप्रमत्तत्व शिखर कहा गया लगता है। फिर शिखर पर जो जैनपुर बताया गया है वह (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप) चार प्रकार के महासंघ में रहने वाले लोगों को अत्यन्त प्रमोद प्रदान करने वाला द्वादशांगी रूप जैन प्रवचन ही प्रतीत होता है। उपरोक्त चतुर्वर्ण महासंघ के लोग जो सर्व गुण-सम्पन्न हैं तथा द्वादशांगी में वरिणत प्राज्ञाओं को कार्यरूप में परिणत करने वाले हैं वे जैनपुरवासी लगते हैं। सब का सार रूप चित्तसमाधान.मण्डप है क्योंकि नगर की शोभा उसके मण्डप से ही होती है। नि:स्पृहता वेदी और जीववीर्य सिंहासन तो स्पष्ट शब्दों में वर्णित हैं अतः स्वतः ही समझ में आ जाते हैं। यह सब वर्णन मुझे भावार्थ के साथ समझ में आ गया है, अतएव राजा, उसका परिवार और उसकी सेना के सम्बन्ध में जो वर्णन आगे आयेगा वह भी भावार्थ सहित समझ में आ जायेगा, इसमें क्या शंका है ? उपरोक्त वर्णनों का रहस्य भली प्रकार समझ में आ जाने से प्रकर्ष अत्यधिक प्रमुदित हुआ।
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