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________________ ६२२ २. शील- मुख वत्स ! दूसरा शील-मुख है । चारित्रधर्मराज का यह मुख जिस प्रकार कथन करता है तदनुसार ही जैनपुर में जितने साधु रहते हैं वे सब उसका आचरण करते । यह शीलमुख साधुत्रों को अठारह हजार नियमों का निर्देश करता है, उन सब का ये मुनिपुंगव प्रतिदिन पालन करते हैं । यह उत्तम शील ( विशुद्ध व्यवहार ) ही साधु का सर्वस्व है, सच्चा आलम्बन है, और उनका आभुषण हैं । मुनियों को तो यह मुख सम्पूर्ण रूप से शील- पालन का आदेश देता है, इसके प्रादेशानुसार मुनिवर्ग भी पूर्णरूपेण सुखपूर्वक पालन करता है । साथ ही मुनिवर्ग के अतिरिक्त गृहस्थ भी इन नियमों का थोड़ा-थोड़ा पालन करते हैं । वत्स ! मैंने शील नामक दूसरे मुख का स्वरूप बताया, अब मैं तीसरे मुख का वर्णन करता हूँ, सुन । [११७-१२ \ ] उपमिति भव-प्रपंच कथा ३. तप-मुख चारित्रधर्मराज का तीसरा तप नामक मुख अत्यन्त ही मनोहारी है । यह सब प्रकार की आकांक्षा को दूर कर, दुःख का नाश कर प्राणी को सुखमय बनाता है । ( प्राकांक्षा के दूर होते ही प्राणी नि:स्पृह बन जाता है जिससे वह किसा के अधीन नहीं रहता । आकांक्षा और व्याधि के नष्ट होते ही संसार का रास्ता सरल, सोधा और सपाट हो जाता है ।) यह तप-मुख प्राणियों में विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न करता है, संसार पर संवेग प्राप्त करवाता है, मन की समता दिलवाता है, शरीर को सुखकारी और सुन्दर बनाता है और अन्त में दुःख और विनाशरहित शाश्वत सुख के योग्य बनाता है । सज्जन पुरुष इस नरेन्द्र का तप-मुख देखकर, इसकी आराधना कर और अपने असाधारण सत्व का उपयोग कर अन्त में लीलापूर्वक निर्वृत्तिनगरी को चले जाते हैं । ( कर्मों की निर्जरा करने का यह मुख प्रबल साधन है । तीर्थंकर अपनी मुक्ति उसी भव में जानते हुए भी तप की आराधना करते । तप से शरीर सुख बढ़ता है, यह तो तप करने वालों के अनुभव का विषय है ।) हे वत्स ! चारित्र - घर्मराज के तीसरे मुख का स्वरूप वर्णन कर, अब मैं चौथे मुख शुद्ध भाव का वर्णन करता हूँ । [१२२-१२५] भाव-सुख सुज्ञ सज्जन पुरुष चारित्रधर्मराज के चौथे भाव मुख का भक्ति पूर्वक स्मरण करते हैं, देखते हैं और प्राराधना करते हैं, उससे उनके समस्त पाप-समूह नष्ट हां जाते हैं और शाश्वत सुख को प्राप्त करते हैं । इस मुख की आज्ञा का अनुसरण कर जैन सत्पुरुष (१२ भावानों का ) विचार करते हैं- अहो ! इस संसार में जितने भी पदार्थ दिखाई देते हैं वे सब तुच्छ और नाशवान हैं (अनित्यभाव ) । पूर्व कर्म के उदय से जब प्राणी संसार में दुःख और पीड़ा भोगता है तब उसे कोई ऋ पृष्ठ ४४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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