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प्रस्ताव ४ : सात्विक-मानसपुर और चित्त-समाधान मण्डप
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विमर्श-अच्छी बात है, ऐसा हो करते हैं। [१०]
इस प्रकार विचार कर मामा और भाणेज योग्य स्थान से उस मण्डप में प्रविष्ट हुए । यहाँ से उनको अन्दर का पूरा दृश्य दिखाई दे रहा था। इस मण्डप को देखते ही उन्हें लगा कि यह मण्डप स्वकीय प्रभाव से विक्षेप प्राप्त लोगों के सन्ताप को दूर करने में समर्थ एवं सुन्दर है । इस मण्डप के बीच में एक चार मुख वाला राजा उन्हें दिखाई दिया जिन्होंने अपने तेज से मण्डप के अन्धकार को नष्ट कर रखा था। उनके आस-पास अनेक लोग बैठे थे जो सत्-चित् और आनन्द को देने वाले दिखाई देते थे। एक विशाल वेदी पर अत्यन्त श्रेष्ठ सिंहासन पर राजा विराजमान थे। राजा को देखते हो प्रकर्ष अत्यन्त आनन्दित, हर्षित और प्रमुदित हुआ। साधारणत: उसकी प्रकृति नये-नये विषयों में कौतूहलपूर्ण होने से कुछ प्रश्न पूछकर वास्तविकता जानने की इच्छा हुई। फिर उसने मामा से क्रमशः प्रश्न पूछे ।
[११-१४] सात्विक-मानसपुर
प्रकर्ष--अहा मामा ! जिस जैनपुर का ऐसा स्वामी व राजा हो, इतना अच्छा मण्डप हो और जहाँ इतने श्रेष्ठ लोग रहते हों वह नगर तो अवश्य ही सुन्दर और रमणीय होना चाहिये । मामा ! ऐसे श्रेष्ठ विवेक पर्वत पर बसा हुआ यह नगर भी क्या सर्व दोषों से भरे हुए इस भवचक्र में ही आया हुआ है ? भवचक्र में ऐसे सुन्दर मण्डप को कैसे स्थान प्राप्त हो सकता है ? [१५-१२]
विमर्श-वत्स ! यह विवेक महागिरि किस स्थान पर है, इस विषय में बताता हूँ, सुनो। चित्तसमाधान मण्डप जो विवेक पर्वत पर स्थित है, वह वास्तव में तो चित्तवृत्ति अटवी में ही है । किन्तु, विद्वान् उपचार मात्र से इसे भवचक्र में मानते हैं, क्योंकि यहाँ श्रेष्ठ एवं प्रशस्य लोगों से निर्मित अतिविशाल एक सात्विकमानस नामक अन्तरंग नगर है । वत्स ! इसी नगर में यह सुन्दर विवेकगिरि भी है। सात्विक-मानसपुर भवचक्र में है और उसी में श्रेष्ठ विवेक ॐ पर्वत पाया हुआ है, इसलिये इन दोनों का परस्पर आधार-आधेय का सम्बन्ध है । भवचक्र में सात्विकमानसपुर और उसी में विवेकपर्वत होने से जैनपुर को भी भवचक्र में गिना जाता है।
__ [१७-२०] प्रकर्ष-मामा ! यदि आप जैसा कहते हैं वैसा ही है तब तो विवेक पर्वत के आधारभूत सात्विक-मानसपुर, उसके प्राश्रय में रहने वाले बहिरंग लोग, महान विवेक पर्वत, अप्रमत्तत्व शिखर, जैनपुर उसके निवासी बहिरंग लोग, चित्त-समाधान मण्डप, वेदी, सिंहासन, उस पर बैठे महाराजा और उनके परिवार आदि सभी मेरे लिये तो नये ही हैं। इस जन्म में कभी मैंने इनके बारे में पहले नहीं जाना । यह सब एकदम * पृष्ट ४४१
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