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________________ ६१२ उपमिति-भव-प्रपंच कथा भाई प्रकर्ष ! अधिक क्या वर्णन करू ! 8 संक्षेप में कहूँ तो मैं तुझे पहले ही बता चुका हूँ कि चित्तवृत्ति अटवी की समग्र वस्तुएं जो संसार के प्राणियों को बाह्य रूप से अत्यन्त ही दुःख देने वाली हैं और जिनके प्रभाव में आकर प्राणी अनेक प्रकार के त्रास प्राप्त करते हैं, उन सभी वस्तुओं को ये महापुरुष इस भवचक्र में बैठे-बैठे ही नष्ट हो गई हों ऐसा देखते हैं। ये महात्मा सचमुच बहुत बुद्धिशाली हैं। इन महात्माओं का ध्यान-योग इतना बलवान होता है कि इनको चित्तवृत्ति अटवी सर्व प्रकार के उपद्रवों से रहित दिखाई देती है और इनकी चित्तवृत्ति अटवी पूर्णतया श्वेत, शुद्ध तथा ज्ञानादि रत्नों से परिपूर्ण दिखाई देती है । हे वत्स ! जिन महात्माओं का मैंने तेरे समक्ष वर्णन किया है वे सब तपोधन वोर पुरुष तेरे सन्मुख हैं, उन्हें तू आँखें खोलकर सम्यक् प्रकार से देखलें। [१-४] ३३. सात्विकमानसपुर और चित-समाधान मण्डप अब प्रकर्ष को आनन्द आने लगा, उसकी जिज्ञासा तप्त होने के प्रसंग बढ़ने लगे तथा मन को आनन्दित करने वाली सुन्दर वस्तुओं और लोगों के दर्शन होने लगे एवं सम्पूर्ण जगत का तत्त्वज्ञान चक्षुओं के समक्ष दृष्टिगत होने लगा। उसे एक नई जिज्ञासा हुई अतः उसने मामा से पूछ ही लिया ।] प्रकर्ष-मामा ! आपने बहुत अच्छा किया, मुझ पर कृपा कर महात्मा पुरुषों के दर्शन करवा कर मेरे पाप नष्ट किये । मुझे पवित्र बनाया, मेरे अन्तःकरण को शांत किया, मेरे नेत्र आज वास्तव में पवित्र हुए, आनन्द रूपी प्रमृत का मेरे शरीर पर छिड़काव कर आपने मेरे सम्पूर्ण शरीर को शीतल कर दिया। पर, मामा ! आप तो मुझे यहाँ महावीर्यशालो संतोष राजा का दर्शन कराने लाये थे, वह तो अभी बाकी ही है । सन्तोष राजा के दर्शन आप मुझे करादें तो यहाँ आने का हमारा योजना सफल हो। [५-७] चित्त-समाधान मण्डप विमर्श-भाई प्रकर्ष ! देखो, सामने दूर एक उज्ज्वल चित्त-समाधान मण्डप दिखाई देता है। इसको देखने मात्र से आँखों को सुख एवं शान्ति मिलती है। यह मण्डप अत्यन्त विशाल है और जैनपुर निवासियों को अत्यधिक प्रिय है। संतोष राजा इस मण्डप में ही होना चाहिये, तुम ध्यान से देखो। [८-६] प्रकर्ष- मामा ! यदि ऐसा है तो हम इस मण्डप में जाकर ही राजा को क्यों न देखें? * पृष्ठ ४४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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