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प्रस्ताव ४ : षड् दर्शनों का निर्वृत्ति-मार्ग
६०९ और दुष्टाशय को उत्पन्न करने वाले होंगे, प्रतः विचारशील धीर-पुरुषों को इसका सदा त्याग करना चाहिये । [५-७]
भैया ! परमार्थ दृष्टि से विचार करें तो मीमांसकों को भी निर्वत्ति नगर इष्ट नहीं लगता, क्योंकि ये बेचारे सर्वज्ञ के अस्तित्व को ही अस्वीकार करते हैं और के पल एकमात्र वेद को ही प्रामाणिक तथा आधारभूत मानते हैं। इसीलिये यह कहा गया है कि भूमि (निम्न स्तर) पर स्थित इन पांचों पुरों के निवासी मिथ्यादर्शन से मोहाभिभूत हो गये हैं। [८-१०]
किन्तु अप्रमत्तत्व शिखर पर स्थित जैनपुर के निवासियों ने निर्वृत्तिनगर का जो मार्ग बताया है, वह पूर्ण सत्य, बाधा एवं विरोध रहित है । मिथ्यादर्शन चाहे जितना शक्तिशाली हो तब भी वह यथावस्थित सन्मार्ग को जानने वाले और स्वयं शक्ति-सम्पन्न व्यक्ति का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता । जैनपुर के निवासी ज्ञान और श्रद्धा से अपने को पवित्र कर संसार-बन्दीगृह से नि:स्पृह रहते हैं और चारित्ररूपी वाहन में बैठकर निर्वत्तिनगर को जाते हैं। वत्स ! जैसे यह सन्मार्ग सत्य है और अन्य मार्ग ऐसे क्यों नहीं, इस विषय में यदि मैं विचारणा करने बैठं तो मेरा पूरा जीवन ही समाप्त हो जाय तब भी इस चर्चा का अन्त नहीं आ सकता, इसीलिये तुझे संक्षेप में बता दिया है। प्राशा है तुझे सब बातें सम्यक् प्रकार से समझ में आ गई होगी। ज्ञान, दर्शन और चारित्र लक्षण वाला जो आन्तरिक मार्ग है उसे ही विद्वानों ने वास्तविक निर्वृत्ति-मार्ग माना है। इस निवृत्ति-मार्ग को अप्रमत्तत्व शिखरारूढ़ जैनपुर के लोगों ने ही समझा है, अन्य भूमि पर स्थित लोग अभी इसे नहीं समझ पाये हैं । [११-१६]
भैया ! भवचक्र में मिथ्यादर्शन मन्त्री ने कैसी विडम्बना खड़ी कर रखी है, यह मैंने तुझे संक्षेप में बता दिया है । [१७]
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