SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 721
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा ६. जैन-दर्शन भाई प्रकर्ष ! इस विवेक महापर्वत पर प्रारूढ़ और अप्रमत्तत्व नामक शिखर पर स्थित जैनदर्शन पुर के निवासियों ने निर्वृत्ति नगर का मार्ग इस प्रकार देखा है । जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा और मोक्ष ये तत्त्व हैं । सुखदुःख आदि परिणामों को प्राप्त करने वाला जीव है, इसके विपरीत लक्षण वाला अजीव है। मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये कर्म-बन्ध के हेतु हैं। इन्हें ही आस्रव कहते हैं । आस्रव के कार्य को ही बन्ध कहते हैं। इससे विपरीत संवर है, जिसका फल निर्जरा है और निर्जरा से ही मोक्ष होता है। ये सात पदार्थ है। इसमें विधि और निषेध दोनों अनुष्ठानों को बताया गया है पर पदार्थों का परस्पर विरोध नहीं है। ___इस दर्शन के अनुसार जिसे स्वर्ग की इच्छा हो उसे तप, ध्यान आदि का आचरण करना चाहिये । 'किसी भी जीव को मारना नहीं चाहिये' यह इसका निषेध वचन है। साधुओं को सदा समग्न क्रियाओं में समिति और गुप्ति का पालन करते हुए शुद्ध क्रिया का आचरण करना चाहिये । समिति और गुप्ति से शुद्ध क्रिया हो तो वह असपत्न-योग कहलाता है, ऐसा शास्त्र में कहा गया है। जो उत्पत्ति, स्थिति और विनाश युक्त हो वही सत् है। एक ही द्रव्य अनन्त पर्यायार्थक होता है । जेनदर्शन प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रमाण मानता है। यह जैन मत (दर्शन) का दिग्दर्शन मात्र है। निष्कर्ष वत्स प्रकर्ष ! नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य और बौद्ध तो निर्वत्ति-मार्ग को जानते ही नहीं, क्योंकि नैयायिक पुरुष (आत्मा) को एकान्त और नित्य मानते हैं । अन्य उसे सर्वव्यापी मानते हैं तो बौद्ध उसे प्रतिक्षण नाशवान मानते हैं। जब यह आत्मा नित्य है तब वह अविचल होकर मोक्ष में कैसे जाय ? इसी प्रकार जो सर्व व्यापी है, वह तो सिद्धगति में भी व्याप्त है फिर जाय तो कहाँ जाय ? जो प्रतिक्षरण नष्ट होने वाला है वह तो मोक्ष जाने की इच्छा ही कैसे रखेगा ? * अतएव ये तपस्वी तो निवृत्तिनगर का मार्ग जानते ही नहीं । [१-४] वत्स ! लोकायत (चार्वाक, नास्तिक) तो इस नगरी से दूर ही रहते हैं । पापाभिभूत हृदय वाले ये बेचारे तो निवृत्तिनगर का अस्तित्व ही नकारते हैं। प्राज्ञपुरुषों द्वारा नास्तिकों के इस मत को महापापपूर्ण ही माना जाना चाहिये । क्योंकि, जिसके समक्ष अन्य किसी का भी अस्तित्व तुच्छ है, ऐसे निर्द्वन्द्व (अलौकिक) सुख से आछन्न निर्वत्तिनगर के अस्तित्व का ही ये सर्वथा निषेध करते हैं। किन्हीं अधम पुरुषों ने इस नास्तिक दर्शन का चिन्तन किया होगा, जो स्वयं पापश्रुत (पापपूर्ण) * पृष्ठ ४३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy