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३२. जैन दर्शनपुर [सदागम के समक्ष संसारी जीव अगहोतसंकेता और प्रज्ञाविशाला को अपना जीवन-चरित्र सुना रहा है। इसी जीवन-चरित्र के अन्तर्गत विचक्षण प्राचार्य ने रिपुदारण के पिता नरवाहन को अपनी कहानी सुनाते हुए यह बताया था कि जब शुभोदय राजा ने विमर्श को रसना की उत्पत्ति का पता लगाने भेजा था तब उसका भाणेज प्रकर्ष भी जिज्ञासावश साथ हो लिया था । रसना के उत्पत्ति की शोध तो हो चुकी थी पर उन्हें एक वर्ष का समय मिला था, अतः शेष समय का उपयोग करने के लिये, प्रकर्ष की जिज्ञासा को शान्त करने के लिये मामा विमर्श भाणेज प्रकर्ष को भवचक्रपुर के अनेक कौतुक बताता है ।]
[विचक्षणचार्य राजा नरवाहन को कहते हैं :---] जैन दर्शनपुर की ओर प्रयाग
प्रकर्ष-मामा ! आपकी कृपा से मैंने भवचक्रपुर में बहुत कुछ देखा। अन्तरंग राजाओं की शक्ति कैसी और कितनी है, यह भी समझ में पाया, परन्तु एक बात तो हंसने जैसी ही हो गई। संसार में छोटे बच्चे भी यह कहावत कहते हैं कि 'पुत्र की शादी करने ठाठ-बाट से बरात लेकर गये, पर शादी करके लौटते समय दुल्हन को ही भूल आये ।' ऐसी ही बात हमारे साथ घटित हो गई है । हम भवचक्रपुर में विशेषरूप से महामोह आदि राजाओं को जातने वाले और संतोष राजा के साथ रहने वाले श्रेष्ठ एवं महान् पुरुषों के दर्शन करने आये थे, पर हमने न तो उनके दर्शन किये और न संतोष राजा के ही, अतः जिस हेतु से आये थे वह तो अभी अधूरा ही है। मामा ! मुझ पर अनुग्रह कर * इन महात्माओं और संतोष राजा के स्थान पर मुझे ले चलिये तथा सम्यक् प्रकार से उनका परिचय कराइये । [१८-२३]
विमर्श-भाई ! हम जिस विवेक पर्वत पर खड़े हैं और सामने अप्रमत्तत्व शिखर पर जो जैनपुर दिखाई दे रहा है, उसी में वे महात्मा और संतोष राजा रहते हैं। तुम्हें कौतूहल है तो चलो, वहीं चलकर मैं तुम्हें बताता हूँ। जब तुम उनके प्रत्यक्ष दर्शन कर लोगे, तब तुम्हें सब बात समझ में मा जायगी । [२४-२५]
प्रकर्ष के हाँ कहने पर दोनों जैनपुर की तरफ चले । रास्ते में उन्होंने अत्यन्त निर्मल मानस वाले साधुओं के दर्शन किये । [२६] साधु-वर्णन
विमर्श-भाई प्रकर्ष ! ये वे ही महात्मा हैं जिन्होंने अपने प्रचण्ड वीर्य (शक्ति) से महामोह आदि राजाओं को निर्वीर्य कर दिया है। वत्स ! ये महात्मा * पृष्ठ ४३६
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