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________________ प्रस्तावना कथा सुनने के अवसर पर, आचायश्री के सामने महाभद्रा, सुललिता और पुण्डरीक, बैठे रहते हैं। शेष सभासद वहाँ से चले जाते हैं । फिर, जो कथा शुरु होती है, उसमें, अनुसुन्दर, अपने भवभ्रमण की कहानी असंव्यवहार (निगोद स्थानीय) जीवराशि में से निकलकर संव्यवहार जीवराशि में प्राने से शुरु करता है और विकलाक्ष, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, आदि तमाम जीव-योनियों में अनन्त बार जन्ममरण को प्राप्त करते करते, अपने वर्तमान भव तक, सुना डालता है। इन जन्मजन्मान्तर की कथाओं में, प्रसङ्गवश, पुण्डरीक और सुललिता के भी पूर्वभवों का वृत्तान्त वह सुनाता है। जिसे सुनकर, लघुकर्मी जीव होने के कारण, पुण्डरीक प्रतिबुद्ध हो जाता है। पर, पूर्वजन्मों के दोषों/पापों की अधिकता के कारण, बारबार सम्बोधन करके कथा सुनाने पर भी सुललिता को प्रतिबोध नहीं हो पाता। आखिर, विशेष प्रेरणा के द्वारा उसे बड़ी मुश्किल से बोध प्राप्त हो पाता है । फलतः सबके सब, एक साथ दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं । इस सार-संक्षेप में, आचार्यश्री और महाभद्रा तथा सुललिता के जो वाक्य ऊपर पाये हैं, उनके प्राशयों से यह स्पष्ट पता चलता है कि इस महाकथा के साथसाथ, एक रहस्यात्मक कथा भी चलती रहती है, जिसका सम्बन्ध भौतिक, दृश्यमान पात्रों से न जुड़कर, अन्तरंग रहस्यात्मक मनःस्थितियों/चित्तवृत्तियों से है। इस अन्तरंग कथा का शुभारम्भ और कथा-विस्तार का उपक्रम, मूलग्रंथ में, जिस तरह शुरु किया गया है, उसका सार, इस तरह समझा जा सकता है मनुजगति नगरी के महाराजा 'कर्मपरिणाम' और उनकी प्रधान महारानी 'कालपरिणति' से 'सुमति' नामक बालक का जन्म होता है। इसकी देखरेख के लिये 'प्रज्ञाविशाला' नाम की धाय, नियुक्त होती है। प्रज्ञाविशाला, अपनी सहेली 'अगृहीतसंकेता' से परामर्श के बाद, 'सदागम' नामक उपाध्याय को, सुमति का शिक्षक बनाकर, उसे सुमति को सौंप देती है। एक दिन, सदागम महात्मा, बाजार में बैठे थे। राजकुमार सुमति और प्रज्ञाविशाला भी, उनके साथ बैठे थे। इसी बीच, अगहीतसंकेता भी वहाँ पाती है और बैठ जाती है । थोड़ी ही देर में, फूटे हुए ढोल की अस्त-व्यस्त, कर्णकटु ध्वनि, और लोगों का अट्टहास सुनाई पड़ता है। __कुछ ही क्षणों में, एक 'संसारी जीव' नामक चोर को गधे पर बिठाये हुये, कुछ सिपाही वहाँ से गुजरे । चोर का शरीर राख से पोता हुआ था, उसके ऊपर गेरुए रंग की, हाथ की छापें लगीं थीं। छाती पर कौड़ियों की माला लटकी हुई थी। टूटी मटकी का कपाल सिर पर रखा था। गले में, एक अोर चोरी का माल लटका हुआ था। सिपाहियों की डांट फटकार, और उनके निन्दा-वचन सुनकर, वह थर-थर कांप रहा था। यह दृश्य देखकर, प्रज्ञाविशाला को उस पर दया आ गई। उसने चोर के समीप जाकर उससे कहा-'भद्र ! तू इन (सदागम) महापुरुष की शरण ग्रहण कर।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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