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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा नहीं है ? और इस समय, चित्तरम उद्यान में हैं, यह 'महाविदेह' बाजार कैसे हो गया ? यहाँ के राजा श्रीगर्भ हैं, 'कर्मपरिणाम' नहीं। फिर, प्राचार्यप्रवर यह सब कैसे कह रहे हैं ?' ___ यह सुनकर आचार्यश्री बोले-'धर्मशीला सुललिता ! तुम 'अगृहीतसंकेता' हो । मेरी बात का गूढ़ अर्थ, तुम्हें समझ में नहीं आया।' सुललिता सोचने लगी-'आचार्य भगवन् ने तो मेरा नाम ही बदल दिया, दूसरा नाम कर दिया ।' कुछ भी न समझ पाने के कारण, वह चुप होकर बैठी रह गई। महाभद्रा ने, प्राचार्यश्री का सङ्केत स्पष्टतः समझ लिया। वे जान गईं कि किसी पापी संसारी जीव का प्रायुष्य क्षीण हो चुका है, और वह, अपने पूर्वनिर्धारित मृत्युस्थल पर पहुंचने का संयोग-उपक्रम कर रहा है। फलतः महाभद्रा का मन, उस के नरक-गमन के प्रति, दयाभाव से ओत-प्रोत हो गया। वे बोलीं----'भगवन् ! यह चोर, मृत्युदण्ड से मुक्त हो सकता है क्या ?' 'जब उसे तेरे दर्शन होंगे, और वह, हमारे समक्ष उपस्थित होगा, तभी उसकी मुक्ति हो सकेगी।' 'क्या मैं उसके सम्मुख जाऊं ?' महाभद्रा ने निवेदन किया। 'हाँ, जामो, इसमें दुविधा क्यों है ?' आचार्यश्री ने अनुमति देते हुए कहा । महाभद्रा, उद्यान से बाहर निकलकर राजपथ पर आई, और, अनुसुन्दर चक्रवर्ती को देखकर उसे प्राचार्यश्री के कथन का प्राशय बतलाया और, कहा'भद्र ! 'सदागम' की शरण स्वीकार करो।' महाभद्रा को देखने के कुछ ही क्षणों के बीच अनुसुन्दर को 'स्वगोचर' (जाति-स्मरण) ज्ञान हो गया। फिर, प्राचार्यश्री का कथन सुनने के बाद, महाभद्रा का सुझाव सुना, तो वह चुपचाप, उनके पीछे-पीछे चल पड़ा । और, प्राचार्यश्री के सामने पहुंचकर खड़ा हो गया । अनुसुन्दर को सभा में आते समय, समस्त पार्षदों ने उसे चोर के रूप में देखा। किन्तु, अनुसुन्दर, प्राचार्यश्री को देखकर अवर्णनीय सुख से भर गया । सुख की अधिकता से, उसे मूर्छा आ जाती है । कुछ ही देर में, सचेत होने पर वह उठ बैठता है । तब, राजकुमारी सुललिता, उससे चोरी के विषय में पूछती है। मगर, वह चुप बना रहता है। तब, प्राचार्यश्री निर्देश देते हैं-- राजकुमारी को तुम अपना सारा पूर्व वृत्तान्त सुना दो।' बस, यही वह बिन्दु है, जहाँ से 'उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा' के 'भव-प्रपञ्च' का विस्तार से वर्णन शुरु होता है । अनुसुन्दर, यानी 'चोर', अपनी चोरी का सारा पूर्व-वृत्तान्त सुनाने लगता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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