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प्रस्तावना
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आशयों को समझाने के लिये यह आवश्यक था कि मूलकथा के दोनों स्वरूपों को, और उसकी प्रतीक रूपक पद्धति-व्यवस्था को, प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दिया जाये। अपने, इस दायित्व-निर्वाह में, सिद्धर्षि ने चूक नहीं की। और, कथा-ग्रन्थ की प्रस्तावना/पीठबन्ध के पूर्व में ही, कथा के दोनों स्वरूपों-अंतरंग कथा शरीर और बाह्य कथा शरीर-का संक्षिप्त किन्तु स्पष्ट वर्णन उन्होंने किया है। इनका सार-संक्षेप इस प्रकार समझा जा सकता है ।
___ सुकच्छ-विजय का राजा था-अनुसुन्दर । यह चक्रवर्ती सम्राट् था और इसकी राजधानी थी-मेरुपर्वत के पूर्व महाविदेह क्षेत्र की प्रमुख नगरी क्षेमपुरी। वृद्धावस्था के अन्तिम दिनों में, अपना देश देखने की इच्छा से, वह भ्रमण के लिये निकल पड़ता है । घूमते-घूमते, वह शङ्कपूर नगर पहंचता है। शङ्कपूर के बाहर एक सुन्दर बगीचा था-'चित्तरम' । इसके बीच में 'मनोनन्दन' चैत्य-भवन बना हुआ था। कुछ दिन पहिले, विहार करते-करते प्राचार्य समन्तभद्र भी शङ्खपुर आ पहुंचे थे, और चित्तरम बाग के चैत्य भवन में ठहरे हुए थे।
एक दिन, प्राचार्यश्री की सभा लगी हुई थी। उनके सामने प्रवत्तिनी साध्वी महाभद्रा बैठी हुई थीं। इनके पास में ही श्रीगर्भ नरेश की राजकुमारी सुललिता भी बैठी थी, इसी के पास पुण्डरीक राजकुमार बैठा हुआ था । आसपास अन्य सामाजिक/ नागरिक बैठे हुए थे। इसी समय, अनुसुन्दर चक्रवर्ती का काफिला, उद्यान के बगल से निकलता है। रथों की गड़गड़ाहट और सेना के कोलाहल ने, सभा में बैठे लोगों का ध्यान, अपनी ओर आकृष्ट कर लिया।
'भगवति ! यह कैसा कोलाहल है ?' जिज्ञासावश, राजकुमारी ने महाभद्रा से पूछा।
'मुझे नहीं मालूम ।'-महाभद्रा ने, प्राचार्यश्री की ओर देखते हुए उत्तर दिया।
'राजकुमार पुण्डरीक और राजकुमारी सुललिता को प्रबोध देने का यह अनुकूल अवसर है'- यह विचार करके, प्राचार्यश्री ने महाभद्रा से कहा-'अरे महाभद्रा ! तुम्हें पता नहीं है कि हम सब, इस समय 'मनुजगति' नामक प्रदेश के 'महाविदेह' बाजार में बैठे हुए हैं। आज एक 'संसारी जीव' चोर, चोरी के माल के साथ पकड़ा गया है । दुष्टाशय आदि उसे पकड़ कर वधस्थल की ओर ले जा रहे हैं, ताकि उसे मृत्युदण्ड दिया जा सके । उसे, यह मृत्युदण्ड, 'कर्मपरिणाम' महाराज ने, अपनी राजमहिषी 'कालपरिणति', और 'स्वभाव' आदि से विचार-विमर्श करने के पश्चात् दिया है।
आचार्यश्री की बात सुन कर, सुललिता आश्चर्य में पड़ गई। महाभद्रा की ओर देखकर वह बोली-'भगवति ! हम तो शङ्खपुर में बैठे हैं। यह तो मनुजगति
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