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उपमिति भव-प्रपंच कथा
आशय यह है कि सिद्धर्षि की सम्पूर्ण कथा, दो समानान्तर धरातलों पर, साथसाथ विकास / विस्तार को प्राप्त होती गई है । ये दोनों धरातल हैं-सांसारिकता / भौतिकता और अध्यात्म | सांसारिक / भौतिक धरातल पर तो पाठक को सिर्फ यही समझ में आ पाता है कि अनुसुन्दर चक्रवर्ती का जीवात्मा, किस-किस तरह की परिस्थितियों में से गुजरता हुआ, कथा के अन्त में, मोक्ष के द्वार तक पहुंचता है । इन भौतिक परिस्थितियों में, उसके वैभव सम्पन्न सुखदायी, वे जीवन-वृत्तान्त कथा में आये हैं, जिनके अध्ययन से पाठकों को विलासिता भरे भौतिक सुखों के प्रानन्द / रसपान का अवसर मिलेगा । और, कुछ ऐसी विषम दीन परिस्थितियों का चित्रण भी मिलेगा, जिनमें, पाठक की सहृदयता / दयालुता द्रवित हो उठेगी । जबकि प्राध्यात्मिकता के अमूर्त-माकाश में उड़ान भरती कल्पनाओं का प्राध्यात्मिक कथा- कलेवर, भव्य जीव की शुभ रागमयी पुण्य प्रसूत-केलियों के ऐसे दृश्य उपस्थित करता है, जिनमें भूला भटका भव्य जीवात्मा, सोने की हथकड़ी जैसे पुण्य-बन्ध के अलावा कुछ और हासिल नहीं कर पाता । किन्तु कभी-कभी, अशुभ-रागमय पापोद्भुत ऐसे विषम क्षणों / प्रसङ्गों का भी सामना करना पड़ जाता है, जिनमें, उसका भव्यत्व तक सिहर - सिहर उठता है, लड़खड़ाने लग जाता है ।
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किन्तु ग्रन्थकार का मूल आशय, इन दोनों ही प्रकार की स्थितियों का विश्लेषण नहीं है । उसका स्पष्ट आशय यह है कि जीवात्मा, जिन कारणों से समृद्ध / सम्पन्न बन कर विलासिता में डूबता है, और जिन कारणों से उसे दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं, उन सारे कारणों का भावात्मक स्वरूप - विश्लेषण किया जाये । और, पाठकों को यह बतलाया जाये कि सुख और दुःख की सर्जना, उसके अन्तस् की शुभ-अशुभ रागमयी भावनाओं के आधार पर होती है । यदि, उसकी चित्तवृत्ति, उत्कृष्ट शुभ रागादिमयी है, तो उसे, उच्चतम स्वर्ग में स्थान मिल सकता है । और यदि उत्कृष्ट अशुभ - राग आदिमयी चित्तवृत्ति होगी, तो अपकृष्टतम नरक में उसे जाना पड़ सकता है । श्रतः इन दोनों ही प्रकार की, राग-द्वेष आदि से युक्त शुभ-अशुभ चित्तवृत्तियों / मनोभावनाओं से मुक्त होकर, एक ऐसी मध्यस्थ / तटस्थ चित्तवृत्ति, उसे बनानी चाहिए, जिसके बल से, स्वर्ग / नरक प्रादि भवों में भ्रमण करने से, 'भव-प्रपञ्च' से वह बच सके । यानी, एक ऐसा विशुद्ध शुद्धभाव वह जागृत कर सके, जिसके जागरण से, किसी भी योनि में, किसी भी भव में, आना-जाना नहीं पड़ता ।
इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर, पूरी की पूरी ' उपमिति भव-प्रपञ्च कथा' की कथा - योजना, दुहरे प्राशयों को साथ-साथ समाविष्ट करके लिखी गई है । इसका एक आशय तो, सामान्य जगत् के व्यवहारों में दिखलाई पड़ने वाले स्थान, पात्र, घटनाक्रम आदि में व्यक्त होता हुआ, सामान्य कथावस्तु को आगे बढ़ाता है, जबकि दूसरा प्राशय, अदृश्य / भावात्मक जगत् के आध्यात्मिक विचार व्यापारों में स्फूर्त होता हुआ, सामान्य कथा प्रसङ्गों में प्रनुस्यूत होकर श्रागे बढ़ता है । इन दोनों
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