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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
संक्षेप में दिग्दर्शन कराता हूँ । दुष्टता के प्रभाव में आकर मनुष्य मायावी बनकर अनेक प्रकार के कपट करता है, अन्य को ठगने का प्रयत्न करता है, द्वेष-यन्त्र से पिसता रहता है, अर्थात् द्वषमय बन जाता है, स्नेह सम्बन्ध को तिलांजलि दे देता है और स्पष्टतः दुर्जन बन जाता है। उसकी ऐसी स्थिति बन जाती है कि एक भी अच्छा कार्य यदि उसका स्पर्श भी कर ले तो वह अपने को भ्रष्ट हुआ मानने लग जाता है। अपने परिचितों के समक्ष वह कुत्ते की तरह भोंकता रहता है । अपने निकट सम्बन्धी को खा जाने में तो वह कुत्ते से भी अधिक बढ़ जाता है। अपनी जाति और समुदाय के रीति-रिवाजों से अलग होकर चलता है । अन्य की गुप्त बातों को प्रकट करता है । स्थिर मनुष्यों को भी अस्थिर बना देता है । स्थिर कार्य को नियमबद्धता को चूहे की तरह छिन्न-भिन्न कर सर्वत्र उद्वेग पैदा कर देता है, सम्पूर्ण वातावरण को विषमय बना देता है और जीवन को बोझिल बना देता है। वह खलता से आहत होकर मन में एक बात सोचता है, वचन से अन्य प्रकट करता है और कार्यरूप में किसी तीसरी बात को ही करता है। अपनी अनुकूलता के अनुसार कभी वह तप्त हो जाता है और कभी प्रतिकूल अवसर प्रा पड़ने पर कपट पूर्वक ठंडा पड़ जाता है। कभी न अधिक गर्म और न अधिक ठण्डा ऐसी मध्यम स्थिति धारण कर लेता है । तात्पर्य यह है कि वह सन्निपात ग्रस्त मनुष्य के समान अपनी एकरूपता (एक जैसी स्थिति) नहीं रख सकता। अर्थात् दुर्जनता को अच्छा लगे ऐसे अवसरानुकूल रूप धारण करता रहता है। भैया ! तुम्हें इस पिशाचिन के बारे में जानने की इच्छा थी इसीलिये संक्षेप में तुझे बता दिया है, वैसे मुझे तो इस पिशाचिन के वशीभूत लोगों का नाम लेना भी अच्छा नहीं लगता।
[१६६-२०६] प्रकर्ष ! इस चौथी पिशाचिनी खलता का लेशमात्र वणन किया अब मैं तुझे पांचवी कुरूपता नामक दारुण स्त्री के विषय में बताता हूँ। ५. कुरूपता
चित्तविक्षेप मण्डप के वर्णन के समय ४२ अनुचरों पे घिरे हुए नाम नामक पाँचवें राजा का वर्णन किया था, वह तो तुझे याद ही होगा। इस राजा ने ही दुष्टता के कारण कुरूपता को भवचक्र में भेजा है। कुरूपता को प्रेरित करने वाले कई बाह्य कारण भी हैं, जैसे अनियमित और दूषित आहार-विहार के फलस्वरूप शरीर-स्थित कफ आदि कुपित होते हैं जिसके परिणाम स्वरूप कुरूपता आती है, * पर तात्त्विक दृष्टि से तो इसे प्रेरित करने वाला नाम कर्म राजा ही है। इसमें इतना अधिक शक्ति प्राचुर्य है कि जब वह प्राणी के शरीर में प्रविष्ट हो जाती है तब उसकी आँखों में महान उद्वग पैदा हो ऐसा रूप धारण करवाती है। यह प्राणी में लंगड़ापन, कुबड़ापन, ठिंगणापन, अन्धता, विवर्णता, अंगोपांगहीनता, ताड जैसा लम्बापन व अन्य शारीरिक विषमताएं पैदा करती है। लंगड़ापन आदि ही * पृष्ठ ४२६
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