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________________ प्रस्ताव ४ : सात पिशाचिनें ४. खलता अब तेरे कौतुक को शान्त करने के लिए चौथी खलता (दुष्टता) पिशाचिन का स्वरूप बताता हूँ, इसे तू ध्यानपूर्वक श्रवण कर। हे वत्स ! मूल राजा कर्मपरिणाम के सेनापति पापोदय इस खलता (दुष्टता) को प्रेरित कर भवचक्रपुर में भेजता है । दुर्जन की संगति और उसके साथ के विशेष सम्बन्ध से भी यह प्रेरित होती हुई जान पड़ती है, पर तत्त्वदृष्टि से देखने पर वास्तव में पापोदय ही इसकी प्रेरणा का मूल कारण है, क्योंकि दुर्जनों की संगति भी पापोदय के कारण ही होती है । जब दुष्टता शरीर में प्रविष्ट होती है तब वह अपनी शक्ति अनेक प्रकार से प्रकट करती है। यह प्राणियों के मन को पाप की अोर प्रेरित करती है, पाप करने की इच्छा उत्पन्न करती है और पाप के प्रति प्रेम पैदा कर उसे पाप-परायण बना देती है । शठता (लुच्चाई), चुगली, बुरा व्यवहार, परनिन्दा, गुरुद्रोह, मित्रद्रोह, कृतघ्नता निर्लज्जता, अभिमान, मात्सर्य, परमर्म उद्घाटन, धृष्टता, परपीडा, * ईर्ष्या आदि को इस खलता (दुष्टता) के सहचारीजन समझना। [१६०-१६५] सौजन्य ___ कर्मपरिणाम महाराजा का दूसरा पुण्योदय नामक एक महान उत्तम सद्गुणी सेनापति भी है । यह पुण्योदय अपने अनुचर सौजन्य नामक श्रेष्ठ पुरुष को भी भवचक्र नगर में भेजता है। यह सौजन्य अपने साथ शक्ति, धैर्य, गम्भीरता, विनय, नम्रता, स्थिरता, मधुरवचन, परोपकार, उदारता, दाक्षिण्य, कृतज्ञता, सरलता आदि अनेक योद्धाओं को साथ लेकर पाता हैं । हे प्रकर्ष ! यह सौजन्य जब मानव के सम्पर्क में आता है तब वह अपनी शक्ति से मनुष्यके मन को एकदम निर्मल और अमृत जैसा प्रशस्त बना देता हैं । यह विशुद्ध धर्म और लोक-मर्यादा को स्थापित कर स्थिर रखता है, लोगों में सदाचार प्रवर्तित करता है, सच्ची मित्रता बढ़ाने का परामर्श देता है और परस्पर सच्चा विश्वास पैदा करता है । सब से बड़ी बात तो यह है कि इसी भवचक्रपुर में ही किसी-किसी प्राणी को अपने अत्यन्त सौजन्य के योग से मिथ्यात्व का हरण कर इतनी प्रशस्त बुद्धि प्रदान करता है कि वह सामान्य जन-प्रवाह से अत्यधिक उत्कृष्ट बनकर अनुकरण योग्य बन जाता है । हे वत्स ! ऐसा श्रेष्ठतम कार्य करने वाले इस सौजन्य से यह खलता पिशाचिन शत्रुता रखती है । इसका कारण स्पष्ट है, सौजन्य अमृत है तो खलता कालकूट से भी अधिक तेज विष है। यह पापिष्ठ मन वाली स्त्री अपने पराक्रम से सौजन्य का खून करती है और स्वकीय परिवार के साथ इस नगर के निवासियों के पीछे ऐसी क्रूर कठोरता से पड़ जाती है कि बस फिर कुछ कहा नहीं जा सकता। जिस प्राणी में इस खलता की प्रबलता हो जाती है वहाँ से सौजन्य तो आहत होकर चला ही जाता है। उसके जाने के बाद फिर प्राणी जैसो चेष्टाएं करता है उसका वर्णन कठिन है, तथापि के पृष्ठ ४२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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