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उपमिति -:
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-भव प्रपंच कथा
श्रावश्यकता नहीं है । कोई भी भवचक्र निवासी चाहे चक्रवर्ती हो या रंक, बुड्ढा हो या जवान, शक्तिशाली हो या निर्बल, धैर्यशाली हो या कायर, आनन्दमग्न हो या आपद्ग्रस्त, मित्र हो या शत्रु, तपस्वी हो या गृहस्थ, सज्जन हो या दुर्जन, संक्षेप में किसी भी अवस्था वाले प्राणी पर यह अपनी शक्ति का प्रयोग सम्यक् रीति से पूर्णरूपेण करती है । [१७२ - १७९]
जीविका (जीवन)
श्रायुराज की अंगभूत उसकी प्रागप्यारी जीविका नामक स्त्री है जो विश्व प्रसिद्ध है । यह लोगों को आह्लादित करने और उन्हें प्रसन्न रखने में बहुत कुशल है और अपना कर्त्तव्य प्रतिदिन सुचारु रूप से करती रहती है। इसी के प्रताप से लोग अपने-अपने स्थान पर सुख से रहते हैं, इसी हितकारी गुरण के कारण यह समस्त लोगों को अत्यधिक प्रिय है । इतनी सुन्दर जीविका (जीवन) का खून कर यह क्रूर पिशाचिन मृत्यु लीलापूर्वक बेचारे लोगों को स्व-स्थान से खींचकर अन्य स्थानों में धकेल देती है । इतना ही नहीं, यह लोगों को इतने विकृत एवं दूषित स्थानों पर धकेलती है कि वे फिर अपने मूल स्थान पर भी नहीं आ सकते और ढूंढने पर भी नहीं मिल पाते । जैसे रिपुकम्पन को पुत्र मररण के सदमे के बहाने से इस मृत्यु ने आकर उसे वहाँ से निकाल कर कहीं दूर फेंक दिया । इस मृत्यु के आदेश से जब लोग अन्य स्थान पर जाते हैं तब वे यहाँ का धन, घर-गृहस्थी, सगे-स्नेही, सम्बन्धी आदि सब को यहीं छोड़कर अकेले ही चले जाते हैं । धन. गृह आदि सब को प्राप्त करने में चाहे जितने प्रयत्न किये हों, किन्तु इन सब को यहीं छोड़कर मात्र अच्छे-बुरे कर्मों का फल साथ लेकर लम्बी यात्रा के लिये एकाकी ही निकल जाते हैं। और सुख-दुःख से पूर्ण मार्ग पर चल पड़ते हैं । उसके लड़के या सगे-सम्बन्धी कुछ समय तक रोते-धोते हैं, शोक मनाते हैं फिर सब अपने-अपने काम में लग जाते हैं, खाते-पीते हैं और सब व्यवहार करते हैं । धनलिप्सु अपने भोग एवं स्वार्थ के लिये मरने वाले के धन के हिस्से करते हैं और उसके लिये परस्पर ऐसे लड़ते हैं जैसे कुत्त मां के एक टुकड़े के लिये आपस में लड़ते हैं । धन एकत्रित करने में यदि प्राणी ने प्रचुर पाप का बन्ध किया है तो वह तो मृत्यु के प्रदेश से उस धन को छोड़कर अन्यत्र चला जाता है और उस प्रचुर पाप के फलस्वरूप करोड़ों प्रकार के दुःख सहन करता है । ( पीछे रहने वाले उसके धन के लिये भले ही लड़ मरें, पर मरने वाले के दुःख में हिस्सा बटाने कोई नहीं जाता । ) हे वत्स ! यह मृत्यु पिशाचिन ऐसी अत्यन्त त्रासदायी स्थिति उत्पन्न करती है जिसका वर्णन मैंने तेरे समक्ष किया है । यह मृत्यु भवचक्र निवासियों को भिन्न-भिन्न आकार के स्थानों में भिन्न-भिन्न रूपों में घुमाती रहती है । एक स्थान से दूसरे स्थान और दूसरे स्थान से तीसरे स्थान यों इधर-उधर घुमाना ही इसका काम है । [१८० - १८९ ]
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