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________________ ५७८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा से संयोग होने पर, या स्वयं को या अपने किसी स्नेही को व्याधि या विपत्ति से ग्रस्त होने पर मूर्ख प्राणी तुरन्त ही विषाद के वशीभूत हो जाता है और रोने चिल्लाने लगता है, मन में सन्तप्त होता है तथा गरीब रंक जैसा बन जाता है । परन्तु, प्राणी यह नहीं सोचते कि जो कुछ भी अनुकूल या प्रतिकूल संयोग-वियोग होते हैं वे सब पूर्व भव में किये हुए कर्मों का संचित फल मात्र है। उस पर अपना किसी प्रकार का अंकुश नहीं रह सकता, इसलिये उस पर विषाद करने का अवसर ही कहाँ है । हे वत्स ! वे यह भी नहीं सोचते कि विषाद करने से प्राणियों के दुःख में कमी होने के स्थान पर वृद्धि ही होती है। विषाद से, दुःख से छूटकारा नहीं मिल सकता। दुःख से त्राण प्राप्त करने का तो * एकमात्र उपाय शुभ प्रवृत्ति ही है। कारण यह है कि हे वत्स ! दुःख का मल पाप है और शुभवृत्ति एवं शुभ चेष्टा से सब पापों का नाश होता है । जब पाप का हो नाश हो जायगा तब दुःख होगा हो कैसे ? [५०-६४ । प्रकर्ष-मामा ! यदि शुभ प्रवृत्ति का इतना अच्छा प्रभाव होता है और इतना सुन्दर परिणाम निकलता है, तब तो लोगों को इसके लिये पूर्ण प्रयत्न करना चाहिये । लोग जो बार-बार विषाद के वशीभूत हो जाते हैं, उन्हें उसके शासन से बाहर निकलना चाहिये । [६५] विमर्श-भाई ! तूने बहुत अच्छी बात कही, परन्तु इस भवचक्र नगर के लोग इस यथार्थता को अभी समझ नहीं पाये हैं। [६६] २७. चार उप-नगर विवेक पर्वत पर खड़े-खड़े मामा-भाणेज भवचक्र नगर की अनेक प्रकार की लीलायें चेष्टायें देख रहे थे। भाणेज उनके सम्बन्ध में प्रश्न पूछता था और विमर्श उत्तर दे रहा था। इसी बीच मामा बोला-भाई प्रकर्ष ! यह भवचक्र नगर इतना लम्बा-चौड़ा और विशाल है कि इसमें घटित प्रत्येक कौतुक को तो तुझे कैसे दिखा सकता हूँ ? जहाँ तेरी दृष्टि पड़ेगो वहीं तुझे कुछ न कुछ नवीनता दिखाई देगी । वत्स ! तुझे इस नगर का स्वरूप जानने की विशेष जिज्ञासा है, अतः संक्षेप में मैं तुझे कुछ बातें समझाता हूँ। आज हम इस विवेक नामक प्रत्यन्त निर्मल पर्वत पर चढ़े हैं जिससे तू सभी दृश्य स्वयं अपनी आँख से देख सकता है । अतः उसके स्वरूप का वर्णन करने की क्या आवश्यकता है ? इसके गुणों का तो मैं वर्णन करता ही जा रहा हूँ जो तू सुन ही रहा है । अब मैं संक्षेप में भवचक्रपुर नगर के कुछ विशेष दृश्यों का वर्णन करता हूँ जिसे तू ध्यान पूर्वक सुन । [६७-७०] * पृष्ठ ४१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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