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________________ प्रस्ताव ४ : विवेक पर्वत से अवलोकन ५७७ वे करकर्मी तस्कर उसे अनेक प्रकार की यातनायें दुःख कष्ट देने लगे । वत्स ! यह यात्री जो यहाँ आया है, इसका नाम लम्बनक है । यह सेठ के घर का दास है, सेठ के निरन्तर पग धोने वाला है, नमक हलाल है। चोरों से पीड़ित अपने सेठ को देखकर किसी प्रकार वहाँ से भाग छटा और यहाँ आकर इसने सब घटनाएं एकान्त में सेठ से कह सुनाई। इससे सारा वृत्तांत सुनकर वासव सेठ के शरीर और मन में कैसे-कैसे परिवर्तन हुए और आनन्द के स्थान पर मूर्छा पाई, यह तो तूने स्वयं देख ही लिया है। [३६-४८] प्रकर्ष-मामा ! ये इतने अधिक रोते, चीखते-चिल्लाते और विलाप करते हैं, उससे क्या वर्धन बच जायगा ? [४६] हर्ष-विषाद पर चिन्तन विमर्श - नहीं, भाई ! इनके रोने, चिल्लाने और छाती-माथा कूटने से वर्धन का कोई बचाव नहीं हो सकता, उसकी स्थिति में तुषमात्र भी अन्तर नहीं आ सकता। ये लोग इस बात को जानते भी हैं फिर भी इन लोगों को विषाद जैसे नचाता है वैसे ये सब नाचते हैं और व्यर्थ ही पीड़ित होते हैं । तू देखना, धनदत्त के आने के समाचार सुनकर ये हर्षित हो उठे ओर वर्धन की विपत्ति के समाचार सुन कर शोकमग्न हो गये। ये बेचारे हर्ष और विषाद से प्रेरित होकर बार-बार इतने पीड़ित एवं व्यथित होते हैं कि इन्हें विचार करने या अपनी बुद्धि का उपयोग करने का समय ही नहीं मिल पाता। ये पामर तो हर्ष और विषाद के वशीभूत होने के बाद वस्तू-तत्त्व का थोडा भी चिन्तन नहीं कर पाते। हमें क्या करने से क्या लाभ होगा और क्या करने से क्या हानि होगी, इस विषय में बिना सोचे ही वे व्यर्थ में ही अनेक प्रकार की विडम्बनाएं प्राप्त करते हैं। भाई प्रकर्ष ! तुझे एक बात और कहूँ, ये हर्ष और विषाद वासव सेठ के घर में ही ऐसा नाटक करवा रहे हों, ऐसी बात नहीं है । ये इतने प्रबल शक्तिशाली हैं कि इस भवचक्र में किसी भी कारण को लेकर ये धर-घर में लोगों को प्रतिदिन ऐसा हो नाच नचाते रहते हैं। दीर्घ दृष्टि-रहित अज्ञ प्राणी पुत्र-प्राप्ति, राज्य-प्राप्ति, धन-प्राप्ति, मित्र-प्राप्ति आदि सुख के कारणों को प्राप्त कर हर्ष के वश में हो जाते हैं । हे वत्स ! सद्बुद्धिरहित हर्ष के वशीभूत प्राणी ऐसी-ऐसी चेष्टाएं और आचरण करते हैं कि विवेकशील प्राणियों की दृष्टि में हास्य के पात्र बनते हैं। परन्तु, ये मूर्ख लोग विचार नहीं कर सकते कि पुत्र, राज्य, धन, मित्र आदि जो भी सुख की सामग्री है वह उन्हें पूर्व जन्म में किये हुए सुकृत्यों के फलस्वरूप प्राप्त हुई है। यह तो जमा-पूजी का व्यय है । तब फिर कर्म पर आधारित इन अत्यन्त तुच्छ, बाह्य और थोड़े समय में नष्ट होने वाली साधारण वस्तुओं या स्नेहीजनों की प्राप्ति पर हर्ष किस कारण से ? (वस्तुतः रागकेसरी के योद्धा हर्ष के वशीभूत बेचारे प्राणी इस बात का विचार/चिन्तन ही नहीं कर सकते।) इसी प्रकार अपने किसी प्रिय का वियोग होने पर, या किसी अप्रिय व्यक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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