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________________ प्रस्ताव ४: चार उप-नगर उप-नगरों का परिचय इस भवचक्र नगर में छोटे-छोटे अनेक उप-नगर हैं जिनका वर्णन करना तो दुष्कर है, पर उनमें से चार श्रेष्ठ एवं मुख्य हैं, जिनके बारे में बताता हूँ। इनमें से प्रथम का नाम मानवावास, दूसरे का विबुधालय, तीसरे का पशुसंस्थान और चौथे का नाम पापीपिंजर है । इस भवचक्र नगर में ये चार मुख्य उप-नगर हैं जो इस प्रकार व्याप्त हैं कि इसमें यहाँ के सभी निवासी समा जाते हैं। ये चारों उप-नगर भिन्न-भिन्न होने पर भी अन्दर से मिले हुए हैं, ऐसा लगता है। पर, वास्तव में वे अलग-अलग हैं और उनके निवासी भी अलग-अलग हैं । [७१-७३] १. मानवावास प्रथम उप-नगर मानवावास है जो महामोह श्रादि अन्तरंग प्राणियोंसे व्याप्त है, जिससे वहाँ सब समय कलकल निनाद चलता रहता है अर्थात् धमाचौकड़ी चलती ही रहती है तथा बाहर से देखने पर जो जीता-जागता लगता है। इसमें कैसी धूम मची रहती है यह तो तू ने देखा ही है। कहीं कुछ लोगों को अपने प्रिय से मिलन होने पर हर्षातिरेक हो रहा है। कहीं अत्यन्त द्वष उत्पन्न करने वाले मनुष्यों के संयोग से प्रति व्यग्रचित वाले दुर्जनों से भरा दिखाई देता है । कहीं यहाँ के निवासियों को थोड़े से धन की प्राप्ति से ही प्रसन्नता हो रही है । कहीं किसी के धन का नाश हो जाने से अत्यन्त सन्ताप-संतप्त दिखाई दे रहा है। कहीं किसी को ढलती उम्र में पुत्र प्राप्त होने से महोत्सव मनाया जा रहा है। कहीं अत्यन्त प्रिय सम्बन्धी के मरण से भयंकर शोक से लोग अस्त-व्यस्त स्थिति वाले हो रहे हैं। कहीं सेनाओं के भीषण युद्ध के कारण कोई स्थान अत्यन्त भयंकर लग रहा है। कहीं बहत समय बाद स्नेही मित्र के मिलन से आँखों से स्नेहाश्रु टपक रहे हैं। कहीं गरीबी, दुर्भाग्य और विविध व्याधियों से लोग पीड़ित हो रहे हैं । कहीं शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि इन्द्रियों की तृप्ति के कारणों को सुख मानकर लोग आह्लादित हो रहे हैं । कहीं सन्मार्ग एवं सदाचरण से दूर महापापी प्राणियों से परिपूर्ण और कहीं धर्मबुद्धि होने पर भी उसके विपरीत आचरण करने वाले प्राणियों से यह नगर व्याप्त दिखाई देता है । तुझे कितना बताऊँ ? संक्षेप में महामोह आदि राजाओं का जो चरित्र वर्णन मैंने तेरे समक्ष किया था वे सभी चरित्र और घटनायें इस नगर में विशेष रूप से घटित होती हैं । हे वत्स ! मानवावास उप-नगर में भिन्न-भिन्न कारणों और प्रसंगों को लेकर ये सभी घटनायें निरन्तर घटित होती रहती हैं। * इस प्रकार यह इस मानवावास अवान्तर नगर का संक्षिप्त वर्णन है। अब मैं तुम्हें विबुधालय नामक दूसरे सत्पुर का गुण वर्णन सुनाता हूँ। [७४-८३] * पृष्ठ ४१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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