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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
अत्यन्त निन्दनीय है, महारोग का कारण है और अनेक छोटे-छोटे जीवों का समूह है। ऐसे मांस को राक्षसों की तरह खाने वाले स्वयं राक्षस हैं । जो मांस खाने में धर्म मानते हैं, जो धर्म क्रिया में मांस ख ने को कर्त्तव्य समझते है, जो धर्म-बुद्धि से स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा से मांस-भक्षण करते हैं, ऐसे अधिक जीने की इच्छा वाले लोग वस्तुतः निश्चित रूप से तालपूट विष का भक्षण करते हैं। बेचारे नहीं समझते कि तालपुट विष खाने से जीवन बढ़ता नहीं वरन् उसका अन्त हो जाता है। इसी प्रकार मांस खाने वाले को स्वर्ग नहीं मिलता वरन् वह महान् भयकर नरक में जाता है ।) 'अहिंसा परमो धर्मः' जीव-हिंसा न करना उत्कृष्ट धर्म है । यह धर्म मांस-भक्षण से कैसे पाला जा सकता है ? यदि हिंसा से धर्म होता हो, या हो सकता हो तो अग्नि भी बर्फ जैसी ठण्डी हो सकती है । मांस-भक्षण के कितने दोषों का वर्णन करू ? धर्मबुद्धि से या रसगृद्धि से जो व्यक्ति मांस खाते हैं, अथवा मांस-भक्षण के लिये प्राणियों का नाश करते हैं वे नरक को अग्नि में पकाये जाते हैं और महान् दुःखों को प्राप्त करते हैं। वर्तमान में भी जैसे यह ललन सियार को मारने के लिये व्यर्थ परेशान हो रहा है, त्रास सहन कर रहा है, भूखा-प्यासा जंगल-जंगल भटक रहा है, इसी प्रकार शिकार के शौकीन सभी प्राणी हैरान होते हैं, दु:खी होते हैं और त्रास प्राप्त करते हैं । [४५-५२]
___ इस प्रकार जब विमर्श अपने भाणेज प्रकर्ष को ललन के सम्बन्ध में बता रहा था तब ललन का क्या हुआ यह भी सुनिये । सियार के पीछे दौड़ते-दौड़ते उसे पकड़ कर उसका शिकार करने के लोभ से उसने घोड़े को एड़ लगाई। घोड़ा ऊंचीनीची जमीन पर सरपट दौड़ने लगा । इतने में एक बड़ा खड्डा आया जो घास-फूस से ढक गया था। दौड़ता हुआ घोडा राजा सहित खड्ड में गिर पड़ा । वे दोनों इतनी बुरी तरह गिरे कि राजा का सिर नीचे और शरीर ऊपर, जिससे उसके शरीर का चूरा-चूरा हो गया। ऊपर से घोड़े का भार और उसके पांवों की मार से राजा पूरा दब गया । ललन बहुत चिल्लाया, पुकार मचाई, पर कोई उसकी सहायता के लिये नहीं पाया और महान वेदना को सहन करता हुआ खड्डे में पड़ा-पड़ा मृत्यु को प्राप्त हुआ। [५३-५४)
प्रकर्ष बोला-मामा ! शिकार का कुफल इसे तो यहाँ का यहाँ ही मिल गया।
उत्तर में विमर्श ने कहा-अरे ! यह फल तो कुछ भी नहीं यह तो मात्र पुष्प है । अभी तो अगले भव में महा भयंकर नरक में जाकर लम्बे समय तक अत्यन्त दयनीय स्थिति को प्राप्त करेगा तब इसे इसका फल प्राप्त होगा। ऐसे भयंकर पापों के फल इतने से अल्प/थोड़े ही होते हैं ! आश्चर्य की बात तो यह है इतने घोर कटु परिणामों को जानकर भी प्राणी मांस खाता है और प्राणियों की हिंसा करता है । [५५-५६] * पृष्ठ ४१४
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