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________________ प्रस्ताव ४ : विवेक पर्वत से अवलोकन ललन और मृगया (शिकार) __इसी बीच प्रकर्ष की नीलकमल-पत्र जैसी दृष्टि एक घने जंगल पर पड़ी। जंगल की तरफ अपने हाथ से संकेत करते हुए वह बोला-- मामा ! देखिये, दूर एक पुरुष घोड़े पर बैठा हुआ दिखाई दे रहा है । उसके शरीर से पसीना बह रहा है और वह थका हुआ सा लग रहा है । उसके हाथ में शस्त्र उठाया हया है और वह पापी किसी प्राणी को मारने के लिये तत्पर हो ऐसा लग रहा है। स्वयं इस समय चारों अोर से दुःख से घिरा हुआ होने पर भी जंगल के प्राणियों को दुःख देने को उद्यत है। अभी मध्याह्न की भरी धूप में यह भूख से तड़फड़ा रहा है, प्यास से इसका गला सख रहा है, फिर भी सियार के पीछे-पीछे दौड़ रहा है, यह पुरुष कौन है ? [३४-३७] * विमर्श-इसी मानवावास के ललितनगर का यह ललन नामक राजा है। इसे शिकार का गहरा शौक है। यह इस व्यसन में इतना अधिक लुब्ध है कि अन्य किसी विषय पर सोच ही नहीं सकता। यह इस भीषण जंगल में रात-दिन पड़ा रहता है और अवसर देखकर शिकार के लिये दौड़ पड़ता है। इसके सामन्तों, स्वजन-सम्बन्धियों, प्रजाजनों एवं मन्त्रियों ने इसे बार-बार शिकार से रोका, पर इसे तो मांस खाने की ऐसी लत लगी थी कि इसने किसी की नहीं सुनी। राज्य के सब काम बिगड़ते देखकर सारा राज्यमण्डल इसके विरुद्ध हो गया। राज्य के हितचिन्तक अधिकारियों (मुतसद्दियों) ने इस स्थिति को देखकर विचार किया कि यह दुरात्मा शिकारी राजा अब इस राज्यलक्ष्मी के योग्य नहीं रहा, अतः अब इसका राजगद्दी पर रहना नीति-संगत नहीं है। इस विचार से राज्यमण्डल ने ललन के पुत्र का राज्याभिषेक कर इसे राज्य और महल से निकाल दिया। तथापि इसकी शिकार और मांस-भक्षण पर इतनी अधिक आसक्ति है कि यह पिशाच के समान अकेला ही महा दुःखदायी अवस्था को भोगता हुआ सर्वदा जंगल में पड़ा रहता है पर अपने शौक को नहीं छोड़ सकता । 'मूजड़ी जल जाय पर बट न जाय' अथवा 'हाल जाय हवाल जाय पर बन्दे का खेल न जाय' कहावत को इसने चरितार्थ कर दिया है। [३८-४४] मृगया और मांस-भक्षण के दोष हे वत्स ! अन्य हिंसक प्राणी जो अन्य द्वारा मारे हुए जीवों का मांस खाते हैं वे भी जब इस भव और परभव में अनेक दुःख-परम्परा को प्राप्त होते हैं, अनेक प्रकार की पीड़ा सहते हैं तब जो महापापी प्राणी क्रूर बनकर स्वयं ही अन्य जीवों को काटते हैं, जीवित प्राणियों पर तलवार चलाते हैं, तीर या फरसा चलाते हैं और उसका मांस खाते हैं, उन्हें इस भव में ऐसे ही दुःख प्राप्त होते हैं और परभव में वे भयंकर नरक में पड़ते हैं, इसमें लवलेश भी सन्देह नहीं है। भाई ! (मांस देखने में भी बीभत्स लगता है, उसे देखकर उल्टी होतो है), यह अपवित्र वस्तु का पिण्ड है, * पृष्ठ ४१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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