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________________ ५७० उपमिति-भव-प्रपंच कथा पिता के घर को इस पापी पुत्र ने अपने पाप कर्मों से श्मशान जैसा बना दिया है । इसे जूआ खेलने का ऐसा रस लगा है कि किसी अन्य कार्य के बारे में तो यह सोच ही नहीं सकता । समय-असमय यह सिर्फ जुआ खेलने का ही विचार करता रहता है । जब अपनी सब पूजी जुए में गंवा चुका तब जुआ खेलने के लिये चोरो द्वारा धन इकट्ठा करने लगा। इसने इस नगर में अनेक बार चोरियाँ की है, कई बार रंगे हाथों पकड़ा गया है और इसकी जमकर खूब पिटाई भी हुई है । मान्य सेठ का लडकासने से राजा ने इसे मारा नहीं, फिर भी यह अपने कुव्यसन का त्याग नहीं कर सका। आज रात में जुग्रा खेलते हुए यह अपने कपड़े तक सभी कुछ हार बैठा । पर, इसे तो जुए में ऐसा रस लगा था कि जब दाव पर लगाने को कुछ भी शेष नहीं बचा तो इसने अपना सिर ही दाव पर लगा दिया। इन महाधर्त जुआरियों ने जो इसके चारों और खड़े हैं, उसे इस अन्तिम बाजी में भी हरा दिया और अब उसका सिर काटने के लिये उसे नचा रहे हैं। यह भी अपने पाप से इतना भर गया है कि यहाँ से भाग भी नहीं सकता और खड़ा-खडा अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क करते करते उद्विग्न एवं सन्तप्त हो रहा है। यहाँ से भाग जाने का अवसर ही इसे नहीं मिल रहा है, क्योंकि जुआरियों का इस पर कड़ा पहरा है । [१८-२५] द्यूत-दोष : पर्यालोचन प्रकर्ष-मामा ! क्या इस बेचारे को यह मालम नहीं है कि जूना संसार में समस्त प्रकार के अनर्थों का मूल है । धन का क्षय करने वाला, अत्यन्त निन्दनीय, उत्तम कुल व प्राचार को दूषित करने वाला, सर्व पापों का उद्भव स्थान और लोगों में अपयश एवं लघुता प्राप्त करवाने वाला यह जुया है । यह जुना अनेक प्रकार के मानसिक क्लेशों का मूल, लोगों के विश्वास को समाप्त करने वाला और पापी लोगों द्वारा प्रवतित है, क्या यह इस बात को नहीं जानता ? [२६-२८] विमर्श - यह बेचारा महामोह राजा की सेना के वशीभूत हो गया है, अतः अब यह क्या कर सकता है ? क्योंकि जो प्राणी पहले ही स्वयं अधम होते हैं और फिर वे विशेष रूप से महामोह के वशीभूत हो जाते हैं वे हो जुआ खेलते हैं, उसमें गृद्ध होते हैं और उसके कटुफल भोगते हैं । [२६-३०] विमर्श यह बता हो रहा था कि इतने में उन जूारियों ने क.पोतक का सिर धड़ से अलग कर दिया। ऐसा बीभत्स दृश्य देखकर प्रकर्ष बोल पड़ा-पोह मामा ! जो प्राणी महा अनर्थकारो जुआ खेलते हैं, उसकी ऐसी ही गति होती है ? [३१-३२ विमर्श-- भाई ! तू ने ठीक ही देखा । तू ने वास्तविकता को समझा है । जो प्राणी जुना खेलने में आसक्त होते हैं, उन्हें इस भव में या परभव में लेशमात्र भी सुख नहीं मिलता। [३३] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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