________________
५६८
उपामति-भव-प्रपंच कथा
को छोड़ नहीं सकते। फिर वेश्या-व्यसन में फंसे लोग ऐसे अनेक प्रकार के नाटक करते हैं और असह्य दुःख प्राप्त करते हैं । वत्स ! इसमें आश्चर्य क्या है ? भाई ! जब कुलवती स्त्रियाँ भी स्वभाव से ही चञ्चल चित्त वाली होती हैं तब गणिका जैसी कुलटा स्त्रियों का तो कहना ही क्या ? वे यदि एक को छोड़ कर दूसरे का साथ करें तो इसमें आश्चर्यजनक प्रश्न ही क्या ? जब कुलवती स्त्रियाँ भी माया की छाब और गुप्त कपट करने वाली होती हैं तब अनुभवी गणिकाओं की माया/कपट की तो बात ही क्या ? जब अन्य कुलवान स्त्रियाँ भी स्नेह को तिलांजलि दे देती हैं तब वेश्या के स्नेह पर विश्वास करने वाले को तो मूर्खशिरोमणि ही कहा जा सकता है । एक को अमुक समय मिलने का संकेत करती है, उसी समय दूसरे को प्रेम से देखती है. उसी वक्त घर में तोसरा व्यक्ति उपस्थित रहता है। अपने मन में किसी अन्य की लगन लगी होती है और किसी अन्य को अपने पास में सुलाती है, ऐसा वेश्या का चरित्र है। जब तक उसका स्वार्थ सधता है तब तक अनेक प्रकार की चापलूसी करती है, मधुर वचन बोलती है, प्रेम प्रदर्शित करती है, पर जैसे ही उसका धनरूपी रस नष्ट हो जाता है वैसे ही लाक्षा का रस चू जाने पर अलता के समान छोड़ देती है, अर्थात् चूसे हुए आम की गुठली की तरह उसे निकाल फेंकती है । वेश्या तो सार्वजनिक शौचालय जैसी है। जो उस पर आसक्त होते हैं वे मनुष्य नहीं श्वान हैं। जो पापी लोग वेश्या-व्यसन में मासक्त होते हैं उनकी दशा अत्यन्त दयनीय हो जाती है। [१-१२]
. प्रकर्ष - मामा ! आपका कथन पूर्ण सत्य है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
२६. विवेक पर्वत से अवलोकन
विमर्श और प्रकर्ष ने रात्रि का शेष भाग किसी मन्दिर में बिताया। जैसे बीमार बालिका पीली तेजहीन और केश-विहीन हो जातो है उसी प्रकार उस समय आकाश की शोभा पीली पड़ गयी, तारे छिपने लगे और अन्धकार नष्ट होने लगा। आकाश-लक्ष्मी की शोभा को पुनः स्थापित करने के लिये करुणापूर्वक सूर्य वैद्य बनकर पहँच गया । उषा काल का आकाश अब फिर रक्तिम आभा ने चमक उठा। आकाश लाल मेघमाला से सुशोभित हो गया। चन्द्रमा कांतिहीन हो गया। चोर छिप गये, मुर्गे बांग देने लगे, उल्लू चुप हो गये, गिलहरिये जोर-जोर से बोलने लगी
और जगत्-लक्ष्मी के आरोग्य की कामना से सब लोग अपने दैनिक कार्यों एवं धर्मकार्यों में उद्यत होने लगे । आकाश-लक्ष्मी की शोभा-महत्ता में वृद्धि हाने के कुछ देर
* पृष्ठ ४११
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org