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________________ प्ररताव ४ : रमण और गणिका रमण को मृत्यु ___ इस बात को सुनते ही भय ने रमण के शरीर में प्रवेश कर लिया। इसी समय वेश्या के द्वार पर चण्ड आ पहुँचा। चण्ड के पाने से वेश्या के महल में प्रसन्नता का कलरव हुआ। उसे पाया जानकर भय ने अपना अधिक प्रभाव जताया। रमण थर-थर कांपने लगा, भयभीत हुआ और घबरा गया । अचानक चण्ड महल में प्रा पहुंचा । रमण को देखते ही वह क्रोधित हुआ और तलवार खीचकर * उसे द्वन्द्व युद्ध के लिये ललकारा । बेचारा रमण दोन, निर्लज्ज और नपुसक जैसा हो गया। भय से घबराकर अपनी अंगुलियाँ मुह में ठंसते हुए उसने चण्ड को अष्टांग प्रणाम कर जमीन पर लेट गया । 'अरे प्रभो ! मेरी रक्षा कर ! मेरो रक्षा करें !' कहते हुए उसकी आँखों में से यांसू निकल आये । चण्ड को दया आ गई, इसलिये उसने उसे जान से तो नहीं मारा किन्तु उसकी चोटी, नाक और कान काट लिये, दाँत ताड़ दिये, नीचे का होठ फाड़ दिया, दोनों गाल काट दिये और एक आँख फोड़ दी तथा लात मारकर धक्के देकर उसे महल से बाहर निकाल दिया । उसकी बुरो दशा देखकर मदनमञ्जरी और कुन्दकलिका तालियाँ बजा-बजा कर खिलखिलाकर हँसने लगों । वे दोनों मधुर वचनों से चण्ड की चापलूसो कर रही थीं जिससे वह अधिकाधिक उनकी और आकर्षित हो रहा था। रमण जर्जरित होकर कठिनता से बाहर निकला उसका पूरा शरीर मार से टूट रहा था। बाहर राजसेवकों ने उसे मारा । इस प्रकार मार-पिटाई के नारकीय दुःख सहते हुए वह (उसी रात) मर गया । गणिका-व्यसन का दुष्परिणाम प्रकर्ष आह ! मामा । यह तो बहुत अद्भुत घटना घटी । अहो ! मकरध्वज की शक्ति सचमुच ही आश्चर्यजनक है। अहो ! भय का विलास भी ऐसा ही शक्तिशाली है। अहो ! उस वृद्धा कुट्टनी मदनमञ्जरी का प्रपञ्च भी बड़ा गजब का है । अहो ! सचमुच ही रमण का चरित्र तो अत्यन्त ही करुणाजनक और हास्योत्पादक नाटक जैसा लगता है। विमर्श -- वत्स ! अन्य जो भी मानव वेश्या के व्यसन में आसक्त होते हैं, उन सभी की ऐसी ही दुर्गति होती है, इसमें कुछ भी संशय नहीं । वेश्या के सुन्दर वस्त्र, आकर्षक प्राभूषण ताम्बूल, सुगन्धित द्रव्य, सुवासित पुष्पहार शौर मादक विलेपन की सुगन्धी से बेचारे लोगों का इन्द्रियाँ ऐसी कुण्ठित हो जाती हैं कि वेश्या प्राकृतिक अशुचि से भरी हुई है और अनिच्छनीय अपवित्र पदार्थों की थैलो है, इसका उन्हें स्मरण ही नहीं रहता। ऐसे मूर्ख लोग जीती-जागती विष्ठा की कोठी का आलिंगन कर, कठिनाई से प्राप्त धन का नाश दुरुपयोग करते हैं, अपने कुल को कलंकित करते हैं, और भिखारो जैसे हो जाते हैं । अत्यन्त दयनीय अवस्था को प्राप्त हो जाने पर भी एक बार वेश्या के फंदे में पड़ने के पश्चात् वे उसकी आसक्ति * पृष्ठ ४१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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